Book Title: Anukampa
Author(s): Ratanchand Chopda
Publisher: Jain Shwetambar Terapanthi Mahasabha

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Page 15
________________ अस्सहाय निर्बल जीवों का बध-उनकी हिंसा अनुचित एवं पापमय है। इतने पर भी यह तर्क उठाया जा सकता है कि स्थावर जीव तो अति क्षुद्र हैं-ऐसे जीवों के हनन में और वह भी किसी पुण्यवान जीव की रक्षा या सुख निष्पत्ति के लिये हो तो उसमें पाप न होना चाहिये । ऐसें सिद्धान्त जैन दर्शन से अनभिज्ञता प्रदर्शित करते हैं। शास्त्रों ने सर शब्दों में घोषित किया है - जे केई खुद्दगा पाणा अदुवा संति महालया। सरिसं तेहिं वेरंति असरिसंती य नो वए ॥ सूत्र कृ० २-५-६ राग-द्वेष और हिंसा : . वस्तुत: जैन दर्शन ने पाप और धर्म के विवेचन में भावों को ही प्रधानता दी है। हिंसा की व्याख्या में भी हिंसक की राग द्वेष की विविध उर्मियों तथा उसकी असावधानता को ही हिंसा का मूल मामा गया है। जैन आगम दोहन का सम्पूर्ण निचोड़ इसी में है-'रागोय दोसो वि य कम्मबीयं,' अर्थात् राग और द्वेष ही पाप के मूल बीन हैं। अत: पंडित सुखलालजी के शब्दों में, . “वध्य जीवों का करा उनकी संख्या तथा उनकी इन्द्रिय आदि सम्पत्ति के तारतम्य के अपर हिंसा के दोष का तारतम्य अवलम्बित नहीं है किन्तु हिंसक के परिणाम या वृत्ति की तीव्रता मंदता, सज्ञानता, अज्ञानता या बल प्रयोग की न्युनाधिकता के ऊपर अवलंबित है।” छोटे से छोटे जीव के क्या में भी यदि राग द्वेष की बहुलता हो तो वह एकांत पाप वध का हेतु होता है। इसीलिये धार्मिक क्षेत्र तथा जीवन व्यापार में भी हर समय पूर्ण जागरूकता के साथ हमें राग द्वेष से बचने की चेष्टा रखनी चाहिये । बिना इसके दया के पूर्ण पालन में बट्टा लगाना ही पड़ेगा। राग और द्वेष ये दोनों ही पाप के प्रमुख रास्ते हैं। ये ही आस्मा के स्वाभाविक गुणों को आच्छादित कर उसे कुमार्ग पर प्रवृत्त करते हैं। एक जीव के Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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