Book Title: Anukampa
Author(s): Ratanchand Chopda
Publisher: Jain Shwetambar Terapanthi Mahasabha

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Page 16
________________ अनुकम्पा पोषण के लिये दूसरे के शोषण में तो राग और द्वेष दोनों ही का अस्तित्व है। ऐसी दया तो दया के वेष में करता है। यह निखालिस पाप है। साम्यवाद की भावना हमारे उपर्युक्त कथन को पुष्ट करती है। पर वह साम्यवाद कितना विशाल कितना विस्तृत है जिसने केवल मानव समाज को ही अपनी गोद में स्थान न दिया बल्कि जीव मात्र को। श्रीमद् आचार्य भिक्ष गणिराज ऐसी ही समानता के पुजारी थे। जैन समाज को उनकी उस अनुपम देन के लिये सदा आभारी रहना चाहिये। राग-द्वेष की पहिचान : . ऊपर हम देख चुके हैं कि राग और द्वेष ही करता तक को दया का बाना पहना सकते हैं। ये ही हमारी आंखों पर स्थायी परदा डाल सकते हैं। अतः हिंसा से सर्वथा निवृत्त होने के पूर्व या दया को पूरी तरह पालन कर सकने के पहले राग द्वेष को जीतना, उन्हें अच्छी तरह पहचानना नितान्त आवश्यक है। द्वेष भाव तो शीघ्र ही जाना जा सकता है-यह वह पैनी तलवार है जिसके धंसते ही पीड़ा शुरू हो जाती है। पर राग या मोह भाव तो मधु में लिपटा हुआ विष है जिसका क्षणिक मीठास उसके घातक विष को छिपा देता है। मोह विश्वासघाती है। यह मनुष्य को छलछद्म से परास्त करता है। यह तो वह सोने की हथकड़ी है, जिसे हम गहना मानकर स्वीकार कर लेते है। मोह की मारात्मक शक्ति का क्या ही सुन्दर ढंग से ग्रन्थकारों ने वर्णन किया है : बन्धनानि खलु संति बहूनि प्रेम रज्जु दृढ़ सम आहूव । दारु भेद निपुणोऽपि षड़ांगि निष्क्रियो भवति पंकज क्रोशे॥ अत: मोह के वशवर्ति होकर पाप या अकर्त्तव्य को उचित करार देना ठीक नहीं। यदि मोह की प्रबलता ने हमारे आचरण में शिथिलता Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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