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अनुकम्पा
को पुष्ट करता है। उपर्युक्त पांच प्रकार के स्थावर जीव बड़े छोटे हैं। इनकी भाषा मौन है। हम इनके दुःख का आभास क्रन्दन या अश्रुपात में नहीं पाते तथा यही कारण है कि इनकी व्यथा की गहराई भी हम कभी नहीं नाप सकते । पर क्या किसी को मूक पीड़ा का उपहास करना उचित है ? क्या एक अन्धे, गूंगे और बहरे मनष्य को कष्ट देना इसलिये अपराध नहीं माना जायेगा कि वह दुःख प्रकाश नहीं कर सकता ? हमें सखेद कहना पड़ता है कि जेनेतर तो क्या स्वयम् जैन विचारकों में से भी कई एक ने भ्रम में पड़ कर इन निरीह प्राणियों की कीमत कूतने में शास्त्रों के भावों की अवहेलना को है। उपदेश दिये गये हैं कि मनुष्य, जो जीव जगत् का मुकुट है, को सुख वृद्धि के लिये स्थावर जोवों का हनन अपराध रहित है। ऐसो प्ररूपणा मानव हृदय की दुर्बलता का सहारा पाकर सूखे बन में लगी आग की तरह फैल गई। ऐसी मान्यता को जड़ मजबूत करने के लिये भावुकता का सहारा भी लिया जाता है। प्रश्न उठाया जाता है कि तृषातुर को जल पान न कराना या क्षुधा संतप्त की क्षुधा न मेटना कितना बड़ा अनर्थ होगा। ऐसा न करना दया की विडंबना होगी। ऐसी भावुकता का सहारा लेने के पहले ये आसानी से भुला देना चाहते हैं कि एक जोव की तुष्टि के लिये कितने जीवों को घात होगी। इस सम्बन्ध में हमारे दृष्टिकोण को न्यायपरायगता हमारे सम्पूर्ण विवेचन पर ध्यान देने से अवश्य स्पष्ट हो जायेगी। पाप करते हुए भी पाप को पाप जानना उससे बचने के लिये सर्व प्रथम आवश्यक है। खून के प्याले को आंख मंद कर दूध के फेर में पीते जाने के बनिस्वत उसके असली रूप को जानने से ही एक दिन घृणा होने पर वह शीघ्र त्यागा जा सकेगा।
दया और आचार्य भीखणजी : प्रातःस्मरणीय श्रीमद् आचार्य भिक्षु गणिराज का जन्म दया
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