Book Title: Anukampa
Author(s): Ratanchand Chopda
Publisher: Jain Shwetambar Terapanthi Mahasabha

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Page 11
________________ अनुकम्पम समस्त जीव जीने की इच्छा रखते हैं, मृत्यु कोई नहीं चाहता । अतः प्राणिवध घोर पाप है. साधु इसका परिहार करता है। सच है, जीवन किसे प्रिय नहीं ? क्षुद्र से क्षुद्र, दुःखी से दुःखी जीव भी जीवन का मोह नहीं छोड़ता । अतः प्राण हरण महा पाप है और अभय दा ही सर्वोकृष्ट दया । प्राणी. क्या ?: अब हमें देखना चाहिये कि प्राणधारी है कौन। जैन दर्शन-ने प्राणी या जीव का अति सूक्ष्म विवेचन कर इसके लक्षण एवं मुद्गल निर्मित इसके वासस्थान शरीर का सविस्तार उल्लेख किया है। चैतन्य ही जीव का लक्षण है । जिसमें चेतना शक्तिम्हो, ज सुख-दुःख का अनुभव कर सके वही जीव है । कर्मप्रेरणा से भिन्न-भिन्न योनियों में उत्पन्न होता है तथा नाच्दा शरीर धारला करत है। एक जीव जो चींटी से क्षुद्र रूप में परिभ्रमण कर रहा है कालान्तर में हाथी से बलिष्ट एवं वृहत्ताकार - शरीर एका धारक हो सक है या विकास कम से कर्म-क्षय होने पर वही मानवः शरीर धारण करत चमत्कारपूर्ण बुद्धि, वैभव दिखा सकता है; जो मूढ़: मत्ति के नाम उपहास्य बन रहा है वही विकास करके चेष्टा! एवं कर्मक्षय से भां में प्रज्ञादृष्टि बन सकता है । विभिन्न आकारों तथा शरीरों के धारण से जीव के वेतनत्व में कोई अन्तर नहीं पड़ता। एक ही दीपशिखा को भांति-भांति के छोटे बढ़े, स्पष्ट, स्पष्टतर या स्पष्टतम पात्रों में रखके: से उसका वाह्य आकार- या रूप असहरा दीखेग्रा: सही पर उनमें मूला ज्योति तो एक सी ही रहेगी। मुझमें, आप में, और हमारी चारों तरफा फैले हुए जीव जगत् में उस एक ही जैसे असंख्यात प्रदेशी जीव कन स्फुरण है | चेतना शक्ति की दृष्टि से जीव और जीव में कोई विभेद नहीं, अर्थात सुख दुःख की अनुभूति तो सब में एक रूप है, भेद है केवल! आकार में, शरीर में, पद 'या एक ही शब्द में पुण्यः पाप के तारतम्य में । : ** Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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