Book Title: Anekantvada Author(s): Sukhlal Sanghavi Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf View full book textPage 2
________________ १६२ जैन धर्म और दर्शन हम देखते हैं कि सामान्यगामिनी पहली दृष्टि में से समग्र देश-काल-व्यापी तथा देश-काल विनिर्मुक्त ऐसे एक मात्र सत्-तत्त्व या ब्रह्माद्वैत का वाद स्थापित हुआ; जिसने एक तरफ से सकल भेदों को और तद्ग्राहक प्रमाणों को मिथ्या बतलाया और साथ ही सत् तत्त्व को वाणी तथा तर्क की प्रवृत्ति से शून्य कहकर मात्र अनुभवगम्य कहा । दूसरी विशेषगामिनी दृष्टि में से भी केवल देश और काल भेद से ही भिन्न नहीं बल्कि स्वरूप से भी भिन्न ऐसे अनंत भेदों का वाद स्थापित हुआ। जिसने एक ओर से सब प्रकार के अभेदों को मिथ्या बतलाया और दूसरी ओर से अंतिम भेदों को वाणी तथा तर्क की प्रवृत्ति से शून्य कहकर मात्र अनुभवगम्य बतलाया ये दोनों बाद अंत में शून्यता तथा स्वानुभवगम्यता के परिणाम पर पहुँचे सही, पर दोनों का लक्ष्य अत्यन्त भिन्न होने के कारण वे आपस में बिलकुल ही टकराने और परस्पर विरुद्ध दिखाई पड़ने लगे । भेदवाद प्रभेदवाद - उक्त दो मूलभूत विचारधारात्रों में से फूटनेवाली या उनसे संबंध रखने वाली भी अनेक विचार धाराएँ प्रवाहित हुई। किसी ने अभेद को तो अपनाया, पर उसकी व्याप्ति काल और देश पट तक अथवा मात्र कालपट तक रखी । स्वरूप या द्रव्य तक उसे नहीं बढ़ाया । इस विचारधारा में से अनेक द्रव्यों को मानने पर भी उन द्रव्यों की कालिक नित्यता तथा दैशिक व्यापकता के बाद का जन्म हुआ जैसे सांख्य का प्रकृति-पुरुषवाद, दूसरी विचार धारा ने उसकी अपेक्षा भेद का क्षेत्र बढ़ाया जिससे उसने कालिक नित्यता तथा दैशिक व्यापकता मानकर भी स्वरूपतः जड़ द्रव्यों को अधिक संख्या में स्थान दिया जैसे परमाणु, विभुद्रव्यवाद आदि । श्रद्वैतमात्र या सन्मात्र को स्पर्श करने वाली दृष्टि किसी विषय में भेद सहन न कर सकने के कारण अभेदमूलक श्रनेकवादों का स्थापन करे, यह स्वाभाविक ही है, हुआ भी ऐसा ही । इसी दृष्टि में से कार्य-कारण के अभेदमूलक मात्र सत्कार्यवाद का जन्म हुआ । धर्म-धमीं, गुण-गुणी, आधार - श्राधेय आदि द्वंद्वों के अभेदवाद भी उसी में से फलित हुए । जब कि द्वैत और भेद को स्पर्श करने वाली दृष्टि ने अनेक विषयों में भेदमूलक ही नानावाद स्थापित किये । उसने कार्य-कारण के भेदमूलक मात्र सत्कार्यवाद को जन्म दिया तथा धर्म-धर्मी, गुण-गुणी, आधार-आधेय आदि अनेक द्वंद्वों के भेदों को भी मान लिया । इस तरह हम भारतीय तत्त्वचिंतन में देखते हैं कि मौलिक सामान्य और विशेष दृष्टि तथा उनकी अवान्तर सामान्य और विशेष दृष्टियों में से परस्पर विरुद्ध ऐसे अनेक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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