Book Title: Anekantvada
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf

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Page 10
________________ १७० जैन धर्म और दर्शन विभाग और उनका एक विषय में यथोचित विन्यास करने ही से अनेकान्त सिद्ध होता है। अपेक्षा या नय-- ___ मकान किसी एक कोने में पूरा नहीं होता। उसके अनेक कोने भी किसी एक ही दिशा में नहीं होते। पूर्व पश्चिम, उत्तर, दक्षिण आदि परस्पर विरुद्ध दिशा वाले एक-एक कोने पर खड़े रहकर किया जानेवाला उस मकान का अवलोकन पूर्ण तो नहीं होता, पर वह अयथार्थ भी नहीं । जुदे जुदे सम्भवित सभी कोनों पर खड़े रहकर किये जाने वाले सभी सम्भवित अवलोकनों का सार समुच्चय ही उस मकान का पूरा अवलोकन है। प्रत्येक कोगसम्भवी प्रत्येक अवलोकन उस पूर्ण अवलोकन का अनिवार्य अङ्ग है । वैसे ही किसी एक वस्तु या समग्र विश्व का तात्विक चिन्तन-दर्शन भी अनेक अपेक्षाओं से निष्पन्न होता है। मन की सहज रचना, उस पर पड़नेवाले आगन्तुक संस्कार और चिन्त्य वस्तु का स्वरूप इत्यादि के सम्मेलन से ही अपेक्षा बनती है । ऐसी अपेक्षाएँ अनेक होती हैं; जिनक! आश्रय लेकर वस्तु का विचार किया जाता है । विचार को सहारा देने के कारण या विचार स्रोत के उद्गम का आधार बनने के कारण वे ही अपेक्षाएँ दृष्टिकोण' या दृष्टि-बिन्दु' भी कही जाती हैं । सम्भावित सभी अपेक्षाओं से—चाहे वे विरुद्ध ही क्यों न दिखाई देती हो.---किये जानेवाले चिन्तन व दर्शनों का सारसमुच्चय ही उस विषय का पूर्ण-अनेकान्त दर्शन है । प्रत्येक अपेक्षासम्भवी दर्शन उस पूर्ण दर्शन का एक एक अङ्ग है जो परस्पर विरुद्ध होकर भी पर्ण दर्शन में समन्वय पाने के कारण वस्तुतः अविरुद्ध ही है ____ जब किसी की मनोवृत्ति विश्व के अन्तर्गत सभी भेदों को-चाहे वे गुण, धर्म या स्वरूप कृत हों या व्यक्तित्वकृत हों-भुलाकर अर्थात् उनकी ओर झुके बिना ही एक मात्र अखण्डता का विचार करती है, तब उसे अखण्ड या एक ही विश्व का दर्शन होता है । अभेद की उस भूमिका पर से निष्पन्न होनेवाला 'सत्' शब्द के एक मात्र अखण्ड अर्थ का दर्शन ही संग्रह नय है । गुण धर्म कृत या व्यक्तित्व कृत भेदों की ओर झुकनेवाली मनोवृत्ति से किया जानेवाला उसी विश्व का दर्शन व्यवहार नय कहलाता है; क्योंकि उसमें लोकसिद्ध व्यवहारों की भूमिका रूप से भेदों का खास स्थान है। इस दर्शन के 'सत्' शब्द की अर्थ मर्यादा अस्त्रण्डित न रहा कर अनेक खण्डों में विभाजित हो जाती है। वही भेदगामिनी मनोवृत्ति या अपेक्षा-सिर्फ कालकृत भेदों की ओर मुककर सिर्फ वर्तमान कोही कार्यक्षम होने के कारण जब सत् रूप से देखती है और अतीत अनागत को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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