Book Title: Anekantvada
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 12
________________ १७२ जैन धर्म और दर्शन भी द्रव्यार्थिक ही माने गये हैं। अलबत्ता वे संग्रह की तरह शुद्ध न होकर अशुद्धमिश्रित ही द्रव्यार्थिक हैं। पर्याय अर्थात् विशेष, व्यावृत्ति या भेद को ही लक्ष्य करके प्रवृत्त होनेवाला विचार पथ पर्यायार्थिक नय है । ऋजुसूत्र श्रादि बाकी के चारों नय पर्यायार्थिक ही माने गये हैं । अभेद को छोड़कर एक मात्र भेद का विचार ऋजुसूत्र से शुरू होता है, इसलिए उसी को शास्त्र में पर्यायार्थिक नय की प्रकृति या मूलाधार कहा है। पिछले तीन नय उसी मूलभूत पर्यायाथिक के एक प्रकार से विस्तारमात्र हैं। केवल ज्ञान को उपयोगी मान कर उसके आश्रय से प्रवृत्त होनेवाली विचार धारा ज्ञान नय है तो केवल क्रिया के आश्रय से प्रवृत्त होनेवाली विचारधारा क्रिया नय है । नयरूप आधार-स्तम्भों के अपरिमित होने के कारण विश्व का पूर्ण दर्शन-अनेकान्त भी निस्सीम है। सप्तभंगी भिन्न-भिन्न अपेक्षाओं, दृष्टिकोणों या मनोवृत्तियों से जो एक ही तत्त्व के नाना दर्शन फलित होते हैं उन्हीं के आधार पर भंगवाद की सृष्टि खड़ी होती है । जिन दो दर्शनों के विषय ठीक एक दूसरे के बिल्कुल विरोधी पड़ते हों ऐसे दर्शनों का समन्वय बतलाने की दृष्टि से उनके विषयभूत भाव-अभावात्मक दोनों अंशों को लेकर उन पर जो सम्भक्ति वाक्य-भङ्ग बनाये जाते हैं वही सप्तमंगी है। सप्तभंगी का आधार नयवाद है, और उसका ध्येय तो समन्वय है अर्थात् अनेका. न्त कोटि का व्यापक दर्शन कराना है; जैसे किसी भी प्रमाण से जाने हुए पदार्थ का दूसरे को बोध कराने के लिए परार्थ अनुमान अर्थात् अनुमान वाक्य की रचना की जाती है, वैसे ही विरुद्ध अंशों का समन्वय श्रोता को समझाने की दृष्टि से भंग वाक्य की रचना भी की जाती है। इस तरह नयवाद और भंगवाद अनेकान्त दृष्टि के क्षेत्र में आप ही आप फलित हो जाते हैं। दर्शनान्तर में अनेकान्तवाद-- ___ यह ठीक है कि वैदिक परम्परा के न्याय, वेदान्त आदि दर्शनों में तथा बौद्ध दर्शन में किसी एक वस्तु के विविध ष्टियों से निरूपण की पद्धति तथा अनेक पक्षों के समन्वय की दृष्टि' भी देखी जाती है। फिर भी प्रत्येक वस्तु १---उदाहरणार्थ देखो सांख्यप्रवचनभाष्य पृष्ठ २। सिद्धान्त बिन्दु पृ० ११६ से। वेदान्तसार पृ० २५ । तर्क संग्रह दीपिका पृ० १७५ । महावग्ग ६. ३१ ॥ प्रमाणमीमांसाटिप्पण पृ०६१ से । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 10 11 12 13