Book Title: Anekantvada Author(s): Sukhlal Sanghavi Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf View full book textPage 1
________________ ११ अनेकान्तवाद दो मौलिक विचार धाराएँ विश्व का विचार करनेवाली परस्पर भिन्न ऐसी मुख्य दो दृष्टियाँ हैं । एक है सामान्यगामिनी और दूसरी है विशेषगामिनी । पहली दृष्टि शुरू में तो सारे विश्व में समानता ही देखती है पर वह धीरे-धीरे अभेद की ओर झुकते - झुकते अन्त में सारे विश्व को एक ही मूल में देखती है और फलतः निश्चय करती है कि जो कुछ प्रतीति का विषय है वह तत्त्व वास्तव में एक ही है । इस तरह समानता की प्राथमिक भूमिका से उतरकर अन्त में वह दृष्टि तात्त्विक - एकता की भूमिका पर कर ठहरती है । उस दृष्टि में जो एक मात्र विषय स्थिर होता है, वही सत् है । सत् तत्व में श्रात्यन्तिक रूप से निमग्र होने के कारण वह दृष्टि या तो भेदों ' को देख ही नहीं पाती या उन्हें देखकर भी वास्तविक न समझने के कारण व्याव हारिक या पारमार्थिक या बाधित कहकर छोड़ ही देती है । चाहे फिर वे प्रतीतिगोचर होने वाले भेद कालकृत हों अर्थात कालपट पर फैले हुए हो जैसे पूर्वापररूप बीज, अंकुर आदि; या देशकृत हों अर्थात् देशपट पर वितत हों जैसे समकालीन घट, पट आदि प्रकृति के परिणाम; या द्रव्यगत श्रर्थात् देशकाल - निरपेक्ष साहजिक हों जैसे प्रकृति, पुरुष तथा अनेक पुरुष | इसके विरुद्ध दूसरी दृष्टि सारे विश्व में समानता ही असमानता देखती है और धीरे-धीरे उस असमानता की जड़ की खोज करते-करते अंत में वह विश्लेषण की ऐसी भूमिका पर पहुँच जाती है, जहाँ उसे एकता की तो बात ही क्या, समानता भी कृत्रिम मालूम होती है । फलतः वह निश्चय कर लेती है कि विश्व एक दूसरे से अत्यन्त भिन्न ऐसे भेदों का पुंज मात्र है । वस्तुतः उसमें न कोई वास्तविक एक तव है और न साम्य ही । चाहे वह एक तत्त्व समग्र देश - काल व्यापी समा जाता हो जैसे प्रकृति; या द्रव्यभेद होने पर भी मात्र कालव्यापी एक समझा जाता हो जैसे परमाणु । उपर्युक्त दोनों दृष्टियाँ मूल में ही भिन्न हैं, क्योंकि एक का आधार समन्वय मात्र है और दूसरी का आधार विश्लेषण मात्र । इन मूलभूत दो विचार सरणियों के कारण अनेक मुद्दों पर अनेक विरोधी वाद आप ही आप खड़े हो जाते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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