Book Title: Anekantvada
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf

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Page 13
________________ अनेकान्तवाद 173 और उसके प्रत्येक पहलू पर संभावित समग्र दृष्टि बिन्दुओं से विचार करने का आत्यंतिक आग्रह तथा उन समग्र दृष्टि बिन्दुओं के एक मात्र समन्वय में ही विचार की परिपूर्णता मानने का दृढ़ आग्रह जैन परम्परा के सिवाय अन्यत्र कहीं नहीं देखा जाता / इसी आग्रह में से जैन तार्किकों ने अनेकान्त, नय और ससभंगी वाद का बिल्कुल स्वतंत्र और व्यवस्थित शास्त्र निर्माण किया .जो प्रमाण शास्त्र का एक भाग ही बन गया और जिसकी जोड़ का ऐसा छोटा भी अन्य इतर परंपराओं में नहीं बना / विभज्यवाद और मध्यम मार्ग होते हुए भी बौद्ध परंपरा किसी भी वस्तु में वास्तविक स्थायी अंश देख न सकी उसे मात्र क्षणभंग हो नजर अाथा / अनेकान्त शब्द से ही अनेकान्त दृष्टि का आश्रय करने पर भी नैयायिक परमाणु, आत्मा आदि को सर्वथा अपरिणामी ही मानने मनवाने की धुन से बच न सके / व्यावहारिक-पारमार्थिक आदि अनेक दृष्टियों का अवलम्बन करते हुए भी वेदान्ती अन्य सब दृष्टियों को ब्रह्मदृष्टि से कम दर्जे की. या बिल्कुल ही असत्य मानने-मनवाने से बच न सके / इसका एक मात्र कारण यही जान पड़ता है कि उन दर्शनों में व्यापक रूप से अनेकान्त भावना का स्थान न रहा जैसा कि जैन दर्शन में रहा / इसी कारण से जैन दर्शन सब दृष्टियों का समन्वय भी करता है और सभी द्रष्टियों को अपने-अपने विषय में तुल्य बल व यथार्थ मानता है / भेद-अभेद, सामान्य विशेष, नित्यत्व-अनित्यत्व आदि तत्त्वज्ञान के प्राचीन मुद्दों पर ही सीमित रहने के कारण वह अनेकान्त दृष्टि और तन्मूलक अनेकान्त व्यवस्थापक शास्त्र पुनरुक्त, चर्वित चर्वण या नवीनता शून्य जान पड़ने का आपाततः सम्भव है फिर भी उस दृष्टि और उस शास्त्र निर्माण के पीछे जो अखएड और सजीव सर्वांश सत्य को अपनाने की भावना जैन परम्परा में रही और जो प्रमाण शास्त्र में अवतीर्ण हुई उसका जीवन के समग्र क्षेत्रों में सफल उपयोग होने की पूर्ण योग्यता होने के कारण ही उसे प्रमाण-शास्त्र को जैनाचार्यों की देन कहना अनुपयुक्त नहीं / ई० 1336] [प्रमाणमीमांसा की प्रस्तावना का अंश] 1- न्यायभाष्य 2. 1. 18. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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