Book Title: Anekantvada Author(s): Sukhlal Sanghavi Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf View full book textPage 7
________________ श्रनेकान्तवाद १६७ प्रकार का अद्वैत हुआ। फिर कभी हम जब एक-एक वृक्ष को विशेष रूप से समते हैं तब हमें परस्पर भिन्न व्यक्तियाँ ही व्यक्तियाँ नजर आती हैं, उस समय विशेष प्रतीति में सामान्य इतना अन्तलीन हो जाता है कि मानो वह है नहीं । इन दोनों अनुभवों का विश्लेषण करके देखा जाय तो यह नहीं कहा जा सकता कि कोई एक सत्य है और दूसरा असत्य । अपने-अपने विषय में दोनों अनुभवों का समुचित समन्वय ही है । क्योंकि इसी में सामान्य और विशेषात्मक वन-वृक्षों का बाधित अनुभव समा सकता है । यही स्थिति विश्व के संबन्ध में सद् द्वैत किंवा सद्-द्वैत दृष्टि की भी है । कालिक, दैशिक और देश - कालातीत सामान्य-विशेष के उपर्युक्त द्वैतद्वैतवाद के आगे बढ़कर कालिक सामान्य-विशेष के सूचक नित्यत्ववाद और क्षणिकत्ववाद भी हैं। ये दोनों वाद एक दूसरे के विरुद्ध ही जान पड़ते हैं; पर अनेकान्त दृष्टि कहती है कि वस्तुतः उनमें कोई विरोध नहीं। जब हम किसी तत्त्व को तीनों कालों में अखण्ड रूप से अर्थात् श्रनादि श्रनन्त रूप से देखेंगे तब यह अखण्ड प्रवाह रूप में आदि अन्त रहित होने के कारण नित्य ही है । पर हम जब उस अखण्ड प्रवाह पतित तव को छोटे-बड़े आपेक्षिक काल भेदों में विभाजित कर लेते हैं, तब उस काल पर्यन्त स्थायी ऐसा परिमित रूप ही नजर श्राता है, जो सादि भी है और सान्त भी ! अगर विवक्षित काल इतना छोटा हो जिसका दूसरा हिस्सा बुद्धिशस्त्र कर न सके तो उस काल से परिच्छिन्न वह तत्त्वगत प्रावाहिक ग्रंश सबसे छोटा होने के कारण क्षणिक कहलाता है । नित्य और क्षणिक ये दोनों शब्द ठीक एक दूसरे के विरुद्धार्थक हैं। एक अनादि अनन्त का और दूसरा सादि- सान्त का भाव दरसाता है । फिर भी हम अनेकान्त दृष्टि के अनुसार समझ सकते हैं कि जो तत्त्व अखण्ड प्रवाह की अपेक्षा नित्य कहा जा सकता है वही तत्त्व खण्ड-खण्ड क्षणपरिमित परिवर्तनों व पर्यायों की अपेक्षा से क्षणिक भी कहा जा सकता है । एक वाद की आधार-दृष्टि है अनादि-अनन्तता की दृष्टि जब दूसरे की आधार है सादि - सान्तता की दृष्टि । वस्तु का कालिक पूर्ण स्वरूप अनादि-अनन्तता और सादि- सान्तता इन दो अंशों से बनता है । अतएव दोनों दृष्टियाँ अपने-अपने विषय में यथार्थ होने पर भी पूर्ण प्रमाण तभी बनती हैं जब वे समन्वित हों । इस समन्वय को दृष्टान्त से भी इस प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है । किसी एक वृक्ष का जीवन व्यापार मूल से लेकर फल तक में काल-क्रम से होनेवाली बीज. मूल, अँकुर, स्कन्ध, शाखा प्रतिशाखा, पत्र, पुष्प और फल आदि विविध स्थाओं में होकर ही प्रवाहित और पूर्ण होता है। जब हम अमुक वस्तु को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 ... 5 6 7 8 9 10 11 12 13