Book Title: Anekant 2013 Book 66 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 9
________________ अनेकान्त 66/1, जनवरी-मार्च 2013 धर्मध्यान के ध्याता में ज्ञानवैराग्यसम्पन्नता, संसार से विरक्तता, हृदय की दृढ़ता, मोक्ष की इच्छा, शान्त परिणाम तथा धैर्य का होना आवश्यक है। धर्म ध्यान की सिद्धि तभी होती है, जब ध्याता के हृदय में मैत्री, प्रमोद, कारुण्य एवं माध्यस्थ भाव हो।' धर्मध्यान के भेद - धर्मध्यान के भेदों का कथन करते हुए ज्ञानार्णव में कहा गया है - "आज्ञापायविपाकानां क्रमशः संस्थितेस्तथा। विचयो य पृथक् तद्धि धर्मध्यानं चतुर्विधम्॥28 अर्थात् आज्ञा, अपाय, विपाक और संस्थिति या संस्थान का जो विचार-चिन्तन (विचय) है, इन चारों नाम वाले चार प्रकार के धर्मध्यान हैं। अर्थात् धर्मध्यान के चार भेद हैं - आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय और संस्थानविचय। भगवान की आज्ञा का चिन्तन आज्ञाविचय धर्मध्यान है। कर्मों के उपाय-नाश का चिन्तन अपायविचय कहलाता है। कर्मोदय या कर्म के फल के उदय चिन्तन विपाकविचय धर्मध्यान है। विपाक का अर्थ फल है। लोक के आकार आदि का चिन्तन संस्थानविचय नामक धर्म ध्यान कहलाता है। धर्मध्यान के स्वामी धर्मध्यान सम्यग्दर्शनपूर्वक होता है अतः वह चतुर्थ, पंचम, षष्ठ एवं सप्तम गुणस्थानों में होता है। यह श्रेणी आरोहण के पहले होता है। तत्त्वार्थाधिगमभाष्य में धर्मध्यान केवल अप्रमत्तसंयम नामक सप्तम गुणस्थान में कहा गया है, जो ठीक प्रतीत नहीं होता है। आगे श्रेणी आरोहण में शक्ल ध्यान ही माना गया है। धर्मध्यान की स्थिति अन्तर्मुहूर्त है। धर्म ध्यान वाले के क्षायोपशमिक भाव और शुक्ल लेश्या होती है। धर्मध्यान का फल श्री शुभचन्द्राचार्य ने धर्मध्यान के फल का विस्तृत विवेचन किया है। धर्मध्यान के प्रभाव से जीव वैभवशाली कल्पवासी देव, ग्रैवेयक, अनुत्तर विमान तथा सर्वार्थसिद्धि के देव बनते हैं। उसके बाद मनुष्य भव पाकर शुक्लध्यान धारण कर समस्त कर्मों का नाशकर अविनाशी मोक्ष पद को प्राप्त होते हैं। इस प्रकार धर्मध्यान का फल परम्परया मोक्षप्राप्ति कही गई है। इन्द्रियों में मलंपटता का भाव, आरोग्य, मन की अचंचलता, निष्ठुरता का न होना, शरीर में सुगन्धित, मल-मूत्र की अल्पता, शरीर की कान्ति, प्रसन्नता, सुस्वरता आदि धर्मध्यानी के चिन्ह कहे गये हैं। धर्मध्यान से 4-5-6-7 गुणस्थानों में आगे-आगे असंख्यातगुणी कर्मों की निर्जरा होती है।" पञ्चमकाल में भी धर्मध्यान पञ्चम काल में शुक्ल ध्यान नहीं हो सकता है, अतः इस काल में साक्षात् मोक्ष की प्राप्ति संभव नहीं है। कुछ लोग ऐसा कहते हैं कि जब इस पंचम काल में मोक्ष नहीं है तो ध्यान करने से क्या लाभ है? उन्हें यह समझने की आवश्यकता है कि यद्यपि पंचम काल में शक्ल ध्यान न होने से साक्षात् मोक्ष नहीं है, किन्तु मोक्ष के परम्परा साधक धर्मध्यान का अभाव नहीं है। शुभचन्द्राचार्य लिखते हैं - 'दुःषमत्वादयं कालः कार्यसिद्धेर्न साधकम्। इत्युक्त्वा स्वस्य चान्येषां कैश्चिद्ध्यानं निषिध्यते॥ अर्थात् कोई-कोई ऐसा कहकर अपने तथा पर के ध्यान का निषेध करते हैं कि दुःखम् काल होने से इस काल में ध्यान की योग्यता नही है। ऐसा कहने वालों को ध्यान कैसे हो सकता

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