Book Title: Anekant 2013 Book 66 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 15
________________ अनेकान्त 66/1, जनवरी-मार्च 2013 15 व्याकरण के कठोर नियमों में बँध जाने के कारण संस्कृत भाषा उत्तर-दक्षिण, पूर्व-पश्चिम एवं विदेशों में भी एकरूपता धारण किये हुए हैं। अतः किसी भी देश अथवा किसी भी काल में प्रयुक्त संस्कृत भाषा एक ही अर्थ को व्यक्त करती है। हजारों वर्ष पूर्व संस्कृत में लिखे गये शिलालेखों अथवा संस्कृत-ग्रन्थों में आज भी संस्कृत व्याकरण की कठोरता के कारण एकरूपता है। अर्थात् एक ही अर्थ को व्यक्त करते हैं। प्राकृत भाषा को भी जब व्याकरण के नियमों में जकड दिया गया तो प्राकृत भाषा भी देश-काल की परिधि से बाहर निकल गई और उसमें भी पूर्वापर शब्द प्रयोगों में एकरूपता आ गई। यतः प्राकृत भाषा जनसामान्य की भाषा है, बोलचाल की भाषा है, अतः इसमें नित्य परिवर्तन होते गये और आचार्य भरतमुनि ने भी उन परिवर्तनों को देश-काल के अनुरूप स्वीकार कर उसके पूर्वोक्त सात भेदों का निरूपण किया है। जैसे बाँध हमेशा पानी को आगे बढ़ने से रोकता है और उसे स्थिर कर देता है वैसे ही व्याकरण हमेशा भाषा के विकास को रोक देती है और उसे स्थिर करने का प्रयास करती है। यद्यपि प्राकृत भाषा को समय-समय पर व्याकरण के कठोर नियमों से बाँधा अवश्य गया है, किन्तु उसका प्रवाह रोकने में वैयाकरण पूर्णतः सफल नहीं हो सके हैं और यदि वे सफल भी हुये हैं तो उनकी सीमा साहित्यारुढ़ प्राकृत भाषा तक ही रही है। बोलचाल के रूप में प्रयुक्त प्राकृत भाषा आज भी प्रवहमान है। यतः प्राकृत भाषा आज भी प्राकृत भाषा ही है। अथवा प्राकृत भाषा का विकास है। आज जिन भी भारतीय आर्यभाषाओं का विकास हुआ है, वह प्राकृत भाषा से ही हुआ है। प्राकृत भाषा के विविध रूपों को समेटना एक मुश्किल कार्य है, अतः संस्कृतज्ञों ने संस्कृत भाषा की तरह प्राकृत भाषा के विकास को रोकने के लिये प्राकृत सम्बन्धी व्याकरण शास्त्रों की रचना की है। यतः संस्कृत नाटकों में प्रयुक्त होने वाली प्राकृत भाषा से जो संस्कृतज्ञ अनभिज्ञ थे और संस्कृत रूपक अथवा नाटक लिखना चाहते थे, उनके लिये भरतमुनि ने अपने नाट्यशास्त्र में यह बतलाने काप्रयास किया है कि जो भी संस्कृतज्ञ प्राकृतभाषा से अपरिचित हैं और संस्कृत नाटकों के लेखन में अभिरूचि रखते हैं, वे संस्कृत नाटकों में प्रयुक्त अधम एवं स्त्रीपात्रों के मुख से बोले जाने वाले संवाद तदनुकूल प्राकृत भाषा में ही लिखें, इसके लिए भरतमुनि ने संस्कृत भाषा में चिन्तित संवादों को प्राकृत भाषा में कैसे परिवर्तित करें? इसके कुछ नियम बनाये हैं, जिनका विवेचन इस प्रकार है : सर्वप्रथम यहाँ यह ज्ञातव्य है कि भरतमुनि ने प्राकृत भाषा को 'संस्कारगुणवर्जित' विशेषण से अभिहित किया है। इसका सामान्य अर्थ यह है कि जो भाषा संस्कार गुणों से सम्पन्न है अर्थात् संस्कारित है, वह भाषा संस्कृत है और उससे इतर प्राकृत भाषा संस्कार गुणों से रहित है। संस्कृत नाटकों में प्राकृत भाषा के तीन रूप दिखलाई देते हैं- तत्सम, तद्भव और देशज।' कमल, अमल, रेणु, तरंग, लोल, सलिल आदि शब्द रूप तत्सम हैं। क्योंकि ये शब्द संस्कृत भाषा और प्राकृत भाषा में समान रूप धारण करते हैं। प्राकृत भाषा में किन-किन वर्णों का प्रयोग होता है और किन-किन वर्गों का प्रयोग नहीं होता है? इसका भी उल्लेख भरतमुनि ने किया है। वे लिखते हैं कि- संस्कृत भाषा में प्रयुक्त ए और ओ स्वर के पश्चात् परिगणित ऐ और औ तथा अनुस्वार (-) के पश्चात् प्रयुक्त होने वाले विसर्ग () का प्राकृत भाषा में प्रयोग नहीं किया जाता है। इसी प्रकार ऋ, ऋ, लू और लधु - इन

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