Book Title: Anekant 2013 Book 66 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 16
________________ अनेकान्त 66/1, जनवरी-मार्च 2013 चार वर्णों तथा व और स के मध्य रहने वाले श और ष का, साथ ही कवर्ग, चवर्ग और तवर्ग के अन्तिम वर्णों अर्थात् ड., ज और न - इन तीन वर्गों का प्रयोग नहीं होता है। अर्थात् भरतमुनि के अनुसार प्राकृत भाषा में ऐ, औ, विसर्ग (:), ऋ, ऋ, लु, ल, श, ष, ड., ज और न - इन बारह वर्णों का प्रयोग नहीं होता है। प्राकृत भाषा में, क, ख, ग, त, द, य और व का लोप हो जाता है और उक्त वर्णो का लोप होने के पश्चात् उन वर्गों के जो स्वर शेष रहते हैं, उनसे वही अर्थ निकलता है, जो उन वर्णों के रहने पर निकलता था। ख, घ, थ, ध और भ को ह आदेश होता है। यहाँ पर भी इस आदेश अथवा परिवर्तन के कारण अर्थ में कोई परिवर्तन नहीं होता। प्राकत भाषा में वर्ण के ऊपर स्थित अर्ध रकार अथवा रेफ, या वर्ण के नीचे प्रयुक्त द का प्रयोग नहीं होता है। किन्तु यह नियम मद्र, वोद्रह, हृद, चंद्र और धात्री में लागू नहीं होता है।८।। प्राकृत भाषा में ख, घ, थ, ध और भ को हकारादेश होने पर मुख का मुह, मेघ का मेह, कथा का कहा, वधू का बहु, प्रभूत का पहुअ हो जाता है। इसी प्रकार क, ग, द और व- इन चार वर्गों के प्रतिनिधि द्वितीय स्वर के रूप में रहते हैं।' षट्पद आदि में रहने वाले मूर्धन्य षकार को नित्य छकार आदेश होता है और उसका प्राकृत रूप बनता है- छतपद। किल के ल को र होकर किर बनता है। कु को खु (खकार आदेश) हो जाता है। इसी प्रकार टकार को डकार हो जाता है, अतः भट, कुटी और तट के क्रमशः भद्र, कुडी ओर तड रूप बनते हैं। श और ष के स्थान पर सर्वत्र सकारा हो जाता है, अतः विष को विस और शंका का संका रूप बनता है।" शब्द के प्रारंभ में स्थित न रहने वाले इतर आदि शब्दों में स्थित तकार को दकार हो जाता है। नडवा और तडाग में स्थित डकार को लकार हो जाता है और उनके क्रमशः रूप बनते हैं बलवा और तलाग। धकार को ढकार हो जाता है। सभी प्रयोगों में नकार के स्थान पर णकार हो जाता है। जैसे आपान को आवाण।१३ इसी प्रकार पकार को वकार हो जाता है, जैसे आपान को आवाण। यथा और तथा शब्दों में प्रयुक्त यकार को छोड़कर शेष सभी स्थानों पर यकार को धकार हो जाता है। पकार को फकार आदेश भी होता है, जैसे परुसं का फरुसं। मग और मत - इन दोनों शब्दों का प्राकृत में मओ रूप बनता है। औषध आदि के औ का ओकार हो जाता है तथा औषध का प्राकृत रूप बनता है ओसढ। प्रचय, अचिर ओर अचल शब्दों में स्थित चकार का यकार हो जाता है और उनके क्रमशः रूप बनेंगे - पयय, अयिर और अयल।" यहाँ तक भरतमुनि ने असंयुक्त वर्णों का प्राकृत भाषा में कैसे परिवर्तन होता है, यह बतलाया है। अब आगे संयुक्त वर्गों में किस प्रकार का परिवर्तन होता है, इसका विवेचन किया है, जो इस प्रकार है श्च, प्स, त्थ और थ्य को छकार, भ्य, हच और ध्य को झकार आदेश होता है। ष्ट को ट्ठ, स्त को त्थय, ष्य को म्ह, क्ष्ण को ण्ह, पण को पह, पह, क्ष को रुख रूप बनता है।" इन नियमों को ध्यान में रखकर जो रूप बनते हैं, वे इस प्रकार हैं- आश्चर्य को अच्छरियं, निश्चय को णिच्छय, वत्सं को बच्छं अप्सरसं को अच्छरअं उत्साह को अच्छाह और पथ्य को प्रच्छ। इसी प्रकार तुभ्यं को तुझं, महयं को मझं, विन्ध्य को बिंज्झ दष्ट को दठ, और हस्त को हत्थ रूप बनता है।

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