Book Title: Anekant 2013 Book 66 Ank 01 to 04 Author(s): Jaikumar Jain Publisher: Veer Seva Mandir Trust View full book textPage 8
________________ 8 अनेकान्त 66/1, जनवरी-मार्च 2013 आर्तध्यान के स्वामी यह आर्तध्यान छठे गुणस्थान तक हो सकता है। पाँचवें गुणस्थान तक तो यह चारों प्रकार का होता है किन्तु छठे गुणस्थानवर्ती मुनि के निदानजन्य आर्तध्यान को छोडकर शेष तीन प्रकार का ही होता है। यह आर्तध्यान कृष्ण, नील और कापोत लेश्याओं के बल से प्रकट होता है तथा यह पाप रूपी दावाग्नि को उत्पन्न करने वाला है। आर्तध्यान का फल आर्तध्यान से तिर्यचगति की प्राप्ति होती है। यह क्षायोपशमिक भाव है तथा एक विषय पर अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त ही रहता है। शंका, भय, प्रमाद, असावधानी, कलह चित्तभ्रम, भ्रान्ति, विषय भोग की उत्कण्ठा, निदागमन, मूर्छा आदि इसके चिह्न हैं।२० २. रौद्र ध्यान - आचार्य पूज्यपाद ने रौद्र शब्द की निरुक्ति इस प्रकार की है - 'रुद्रः क्रूराशयस्तस्य कर्म तत्र भवं वा रौद्रम्।। अर्थात् रुद्र का अर्थ क्रूर आशय है, इसका कर्म या इसमें होने वाला भाव रौद्र है। इसी को ज्ञानार्णव में इस प्रकार कहा गया है 'रुद्रः क्रूराशयः प्राणी प्रणीतस्तत्त्वदर्शिभिः। रुद्रस्य कर्म भावो वा रौद्रमित्यभिधीयते॥122 तत्त्वदृष्टाओं ने क्रूर आशय वाले प्राणी को रुद्र कहा है। उस रुद्र प्राणी के कार्य अथवा भाव को रौद्र कहते हैं। हिंसा आदि पाप कार्य करके विकत्थना - डींगें मारने का भाव रौद्र ध्यान कहलाता है। रौद्रध्यान के भेद रुद्र आशय से उत्पन्न हुआ भयानक रौद्र ध्यान चार प्रकार का कहा गया है- हिंसानन्द, मृषानन्द, चौर्यानन्द और विषयसंरक्षणानन्द। इनका स्वरूप नाम से ही स्पष्ट है। रौद्रध्यान के स्वामी रौदध्यान पञ्चम गुणस्थान तक हो सकता है। यह छठे गणस्थानवर्ती साधु को कदापि संभव नहीं है। रौद्र ध्यान के स्वामी का वर्णन करते हुए आचार्य शुभचन्द्र ने लिखा है कि कृष्ण लेश्या के बल से युक्त, नरकपात रूप फल वाला यह रौद्रध्यान पंचम गणस्थान तक की भूमिका में होता है।२४ यहाँ यह अवधेय है कि पंचम गुणस्थान में कृष्ण लेश्या तो होती नहीं है और न नरकायु का बंध है, अतः पंचम गुणस्थान में रौदध्यान गृहकार्य के संस्कार से लेशमात्र समझना चाहिए। रौद्रध्यान का फल रौद्र ध्यान से नरक गति की प्राप्ति होती है। इसे शुभचन्द्राचार्य ने 'श्वभपातफलांकितम्' कहकर स्पष्ट किया है। करता. दण्ड की कठोरता, वंचकता, निर्दयता, इसके अन्तरंग तथा नेत्रों की लालिमा, अकुटियों का टेढ़ापन, भयानक आकृति, देह का कांपना एवं पसीना आना बाह्य चिन्ह है। ३. धर्मध्यान - साधक साम्यभाव का अभ्यास करने के लिए जब एकाग्र होकर किसी इष्ट पदार्थ को निरन्तर ध्याता है, उसका ध्यान धर्मध्यान कहलाता है। शुभचन्द्राचार्य का कथन है कि प्रशमता का अवलंबन करके अपने मन को वश में करके विषयसेवन से विरक्त होकर धर्म ध्यान होता है।Page Navigation
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