Book Title: Anekant 2013 Book 66 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 10
________________ अनेकान्त 66/1, जनवरी-मार्च 2013 है? अर्थात् नहीं हो सकता। वस्तुतः धर्म ध्यान साक्षात् नहीं परम्परा से मोक्ष का कारण है। कहा भी है 'शुभध्यानफलोद्भूतां श्रियं त्रिदशसंभवाम्। निर्विशन्ति नराः नाके क्रमाद् यान्ति परं पदम्।। ४. शुक्ल ध्यान - शुक्लध्यान के स्वरूप का विवेचन करते हुए भी शुभचन्द्राचार्य ने कहा है 'निष्क्रिय करणातीतं ध्यानधारणवर्जितम्। अन्तर्मुखं च यच्चित्तं तच्छुक्लमिति पठ्यते॥5 जो निष्क्रिय अर्थात् क्रिया रहित है, इन्द्रियातीत है, और ध्यान की धारणा से रहित है अर्थात् 'मैं इसका ध्यान करूं' ऐसी इच्छा से रहित है और जिसमें चित्त अन्तर्मुख अर्थात् अपने स्वरूप के ही सन्मुख है, उस ध्यान को शुक्ल ध्यान कहते हैं। इस ध्यान के शुक्ल नामकरण के सम्बन्ध में ज्ञानार्णव में एक आर्या को उद्धृत किया गया है 'शुचिगुणयोगाच्छुक्लं कषायरजसः क्षयादुपशमाद् वा। ___ वैडूर्यमणिशिखामिव सुनिर्मलं निष्प्रकम्पं च॥१० अर्थात् आत्मा के शुचि गुण के सम्बन्ध से इसका नाम शुक्ल पड़ा है। कषाय रूपी राज के क्षय से अथवा उपशम से आत्मा के अत्यन्त निर्मल परिणाम होते हैं, वही शुचि गुण का योग है। यह शुक्ल ध्यान वैडूर्य मणि की शिखा के समान सुनिर्मल एवं निष्कंप है। शुक्लध्यान के भेद शुक्ल ध्यान के चार भेद हैं - पृथकत्वविर्तकवीचार, एकत्ववितर्क अवीचार, सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति और व्युपरतक्रियानिवृत्ति। इनमें प्रथम शुक्ल ध्यान विर्तक, वीचार एवं पृथक्त्व सहित है। द्वितीय एकत्व एवं वितर्क सहित है, किन्तु वीचार रहित है। तृतीय शुक्ल ध्यान में उपयोग की क्रिया नही है किन्तु काय की क्रिया अत्यन्त सूक्ष्म है, अतः इसकी सूक्ष्म क्रिया अप्रतिपाति ऐसा सार्थक नाम है। चतुर्थ शुक्ल ध्यान में काय की क्रिया भी बिल्कुल नष्ट हो जाती है, अतः इसे अन्वर्थ व्युपरतक्रियानिवृत्ति या समुच्छिन्नक्रिया नाम से कहा जाता है। विर्तक श्रुत को कहते हैं तथा वीचार का अर्थ संक्रमण है। संक्रमण एक पदार्थ से अन्य पदार्थ में, एक व्यंजन से अन्य व्यंजन में तथा एक योग से अन्य योग में होता है। कहा भी गया है ‘अर्थादर्थ वचः शब्दं योगाद्योगं समाश्रयेत्। पर्यायादपि पर्यायं द्रव्याणोश्चिन्तयेदणुम्॥ अर्थात् एक अर्थ से अन्य अर्थ का, एक शब्द से अन्य शब्द का, एक योग से अन्य योग का, एक पर्याय से अन्य पर्याय का और एक द्रव्याणु से अन्य द्रव्याणु का चिन्तन करे। शुक्ल ध्यान के स्वामी प्रथम पृथक्त्वविर्तकवीचार नामक प्रथम शुक्ल ध्यान मन, वचन, काय तीनों योगों वाले मुनियों के होता है। द्वितीय एकत्वविर्तक-अवीचार तीनों में से किसी एक योग से ही होता है। तृतीय सूक्ष्मक्रियाऽप्रतिपाति शुक्ल ध्यान केवल काय योग वाले के ही होता है तथा चतुर्थ व्युपरतक्रियानिवृत्ति नामक चतुर्थ शुक्ल ध्यान योोगें से सर्वथा रहित अयोगकेवली के होता है।"

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