Book Title: Anekant 2009 Book 62 Ank 03 to 04 Author(s): Jaikumar Jain Publisher: Veer Seva Mandir Trust View full book textPage 6
________________ अनेकान्त 62/3, जुलाई-सितम्बर 2009 कम्पयूटरीकरण योजना संस्था के ग्रन्थागार में प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, हिन्दी, अंग्रेजी, उर्दू एवं अन्य भारतीय भाषाओं में लिखित जैन एवं जैनेतर साहित्य के उच्चकोटि के सात हजार से भी अधिक प्राचीन एवं नवीन ग्रन्थ हैं। इनमें ज्योतिष, आयुर्वेद एवं जैनेतर धर्मो के हस्तलिखित ग्रन्थ भी है। इन ग्रन्थों की सुरक्षा हेतु संस्था के अपने भवन में आधुनिक तकनीक से परिपूर्ण एक कम्प्यूटर सेन्टर स्थापित किया गया है। संस्था की कार्यकारिणी समिति ने सी.डैक उपक्रम के साथ वीर सेवा मन्दिर के ग्रन्थागार में विद्यमान प्राचीन ग्रन्थों एवं महत्त्वपूर्ण दस्तावेजों के डिजिटाइजेशन का कार्य प्रारंभ हो चुका है। स्कैनिंग की इस प्रक्रिया से ग्रन्थागार की जीर्ण-शीर्ण पुस्तकों एवं पाण्डुलिपियों का संरक्षण हो सकेगा। इस कार्य में संस्था के उत्साही मन्त्री श्री योगेश जैन जी को मैंने सतत निष्ठापूर्वक कार्य में संलग्न देखा है। वीर सेवा मन्दिर के विविध गतिविधियों के संचालित करने के लिए उपसमितियों का गठन किया गया है। यथा अचल सम्पत्ति प्रबंधन उपसमिति, शोध उपसमिति, विधान संशोधन उपसमिति, एवं कम्प्यूटरीकरण प्रोजेक्ट आदि। इन उपसमितियों के संयोजक मनोनीत किये गये हैं उनमें श्री सुभाष जैन, महामंत्री, श्री धनपाल सिंह जैन, श्री योगेश जैन, श्री विनोद कुमार जैन, के साथ श्री रुपचंद कटारिया, श्री सुमत प्रसाद जैन, आदि लोग इसके प्रमुख रुप से सदस्य हैं। शोध उपसमिति जूलाई 1961 में संस्था ने अपना ग्रन्थागार अनुसंधान हेतु लोकार्पित किया था। तब से अब तक शोधार्थी निरन्तर संस्था के ग्रन्थागार के ग्रन्थों से अनुसंधान कार्य में लाभान्वित होते रहे है। इससे बड़ा और प्रमाण क्या हो सकता है कि देश विदेश में जैन विद्याओं पर किये गये शोध कार्य में वीर सेवा मंदिर का उल्लेख और अनेकान्त का सन्दर्भ अवश्य हो दृष्टिगोचर हो जाता है। दिनॉक 2 मार्च 2008 को कार्यकारिणी समिति ने शोध कार्यो में विशेष अवदान हेतु एक शोध उपसमिति का गठन किया है। सम्पूर्ण समिति आगम की सुरक्षा को ध्यान में रखकर शोध कार्य के विकास के लिए दर्ताचत्त होकर प्रयासशील है। शोध उपसमिति की भावना के अनुसार जैन विद्या एवं प्राकृत भाषाओं की त्रैमासिक शोध पत्रिका अनेकान्त ने अपने प्राचीन स्तर को अक्षुण्ण रखते हुए चिन्तनशील पाठकों को नवीन सामग्री प्रदान करने हेतु अपने रूप एवं आकार में परिवर्तन-परिवर्धन किया है। विद्वानों ने अनेकान्त के अवदान को आचार विचार के उन्नयन, तत्वज्ञान के प्रचार प्रसार और साहित्यिक, ऐतिहासिक एवं पुरातात्विक क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण मानकर सम्मान प्रदान किया है। मैं सम्पादक के रूप में विद्वान् मनीषियों से निवेदन करना चाहता हूँ कि वे अपने आलेखों, टिप्पणियों एवं परामर्शो से अनेकान्त के यात्रापथ को सुगम बनायें ताकि यह पत्रिका पूर्व की तरह अनुसंधान के क्षेत्र में मानक स्थान बनाये रख सके। यू.जी.सी. ने शिक्षकों की नियुक्ति एवं पदोन्नति आदि में उन पत्रिकाओं में प्रकाशित शोध पत्रों को ही मान्यता दी है, जिन पत्रिकाओं को ISSN नंबर प्राप्त है। सौभाग्य काPage Navigation
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