Book Title: Anekant 1980 Book 33 Ank 01 to 04 Author(s): Gokulprasad Jain Publisher: Veer Seva Mandir Trust View full book textPage 3
________________ वीर सेवा मन्दिर का एक महत्वपूर्ण प्रकाशन : जैन लक्षणावली Dो प्रगरचन्द नाहटा, बोकानेर बनधर्म एक वैज्ञानिक मौर विश्वकल्याणकारी धर्म है। का प्रयत्न किया गया, पर वो तक एकनिष्ठ होकर उसे तीर्थंकरों ने महान साधना करके केवल ज्ञान प्राप्त किया पूरा कर पाना । दूसरों से संभव नहीं हो पाया किन्तु उसे पौर उसके द्वारा शान्ति व कल्याण का मार्ग जो कुछ भी पूरा करने का श्रेय प. बालचन्द्र जी सिद्धान्त शास्त्री को उनके ज्ञान में झलका, प्राणीमात्र के कल्याण के लिए ही, मिला। वर्षों से (वीर सेवा मन्दिर जब से स्थापित हमा जगह-जगह घमकर लोक भाषा में प्रचारित किया। अपने तभी से) मैं जब भी दिल्ली जाता है तो वीर सेवा मन्दिर शान को दूसरों तक पहुंचाने के लिए शब्दों का सहारा भी पहुंचता हूं। प्रतः पं० बालचन्द जी के काम का ममें अनुभव भी है। अब वह काम पूरा हो गया, इससे मुझे लेना ही पड़ता है। बहुत-से नथे-नये शब्द गढने भी पड़ते व उन्हे दोनों को सन्तोष है। हैं। फिर भी सर्वज्ञ का ज्ञान बहुत थोडे रूप में ही प्रचारित जैन लक्षणावली ग्रन्थ के निर्माण में सबसे बड़ी हो पाता है, क्योकि वह शब्दातीत व अनन्त होता है। उल्लेखनीय विशेषता तो यह रही है कि दि. पौर श्वे. शब्द सीमित हैं। ज्ञान असीम है। जैन धर्म की अपनी दोनों सम्प्रदायों के करीब ४०० ग्रन्यों के माधार, मे यह मौलिक विशेषताएं हैं जो वह उसके पारिभाषिक शब्दों से महान ग्रन्थ तैयार किया गया है। एक-एक जैनपारिभाषिक प्रकट है। बहुत-से शन्द जैन अभ्यो मे ऐसे प्रयुक्त हुये हैं शब्द की व्याख्या किस प्राचार्य ने किस अन्य में किस रूप जो अन्य किम्ही ग्रन्थों व कोष ग्रन्थों मे नही पाये जाते। मे की है. इसकी खोज करके उन ग्रन्थों का प्रावश्यक कई पाब्द मिलते भी हैं तो उनका भर्थ वहाँ जैन ग्रन्थो मे उद्धरण देते हुये हिन्दी मे उन व्याश्यामों का सार दे दिया प्रयुक्त पपों से भिन्न पाया जाता है। अतः जैन पारिभाषिक गया है। इससे उन प्रन्धों के उद्धरणों के दाने का सारा शब्दों का अर्थ सहित कोश प्रकाशित होना बहुत ही श्रम बच गया है और हिन्दी में उन व्यस्यामों का सार पावश्यक है, और अपेक्षित था और अब भी है। अग्रेजी लिख देने से लिख देने से हिन्दी वालों के लिए यह अन्य बहुत उपयोगी भाषा माज विश्व मे विशिष्ट स्थान रखती है पर जैन हो गया है। करीब ४०० ग्रन्थों का सार संक्षेप या मंत्रग्रंथों के बहुत से शब्दों के सही प्रथं व्यक्त करने वाले शब्द दोहान इसी एक ही ग्रन्थ मे कर देना वास्तव में अत्यन्त उस भाषा मे नही हैं। यह जैन ग्रन्थों के अग्रेजी अनुवादको महत्वपूर्ण कार्य है। पं० बालचन्दजी ने सो वर्षों तक प्रयक को प्रायः अनुभव होता है। अत: जैन पारिभाषिक शब्दों श्रम करके जिज्ञासु के लिए बहुत बड़ी सुविधा उपस्थित कर के पर्यायवाची अग्रेजी शब्दों के एक बड़े कोश की पावश्य दी इसके लिए ये बहुत ही धन्यवाद के पात्र हैं । बीर सेवा कता पाज भी अनुभव की जा रही है। मन्दिर ने काफी खर्चा उठाकर बड़े अच्छे रूप में इस प्रन्य ___ ढाई हजार वर्षों मे शब्दों के रूप मौर मर्थ बदले हैं। को प्रकाशित किया। इसके लिए संस्था व उसके परिवर्तन हो जाना स्वाभाविक है। अनेकों प्राचार्यो, कार्यकर्ता भी धन्यवाद के पात्र हैं। मनियो पौर विद्वानो ने एक-एक पारिभाषिक शब्द की जैन लक्षणावली इसका दूसरा नाम जैन पारिभाषिक व्याख्या अपने-अपने ढंग से की है। प्रतः एक ही शब्द के शब्दकोश रखा गया है। इसके तीन भाग हैं, जिनमें पर्थ प्रर्थान्तर पाया जाता है। किस-किस ने किस पारि. १२२० पृष्ठों में पारिभाषिक शब्दों के लक्षण और पर्ष भाषिक शब्द को किस तरह व्याख्यात किया है उसका प्रकारादि क्रम से दिये गये हैं। पहले के दो भागों में, जिनपता लगाने का कोई साधन नही था। इस कमी की जिन ग्रन्थों का उपयोग इस प्रन्य में हपा है उनका विवरण पूर्ति पौर ऐसे ही एक कोष की पावश्यकता का अनुभव भी दिया गया था। तीसरे भाग के४४ पृष्ठों की प्रस्तावना स्व. श्री जगलकिशोर जी मुतार को हुमा पोर उन्होने में बहुत से शब्दों सम्बन्धी विशेष बातें देकर ग्रन्थ की इस काम को अपने ढग से प्रारम्भ किया। पर वह काम मांशिक पूर्ति कर दी गयी है। प्रत्येक भाग का मूल्य ४० बहुत बड़ा था और वे अन्य दूसरे कामों में लगे रहते थे रुपया भोर तीनों भागों का मूल्य १२० रुपये है। यह प्रय इसलिए इसे पूरा करना उनके लिए सम्भव नही हो पाया। संग्रहणीय तो है ही, बहुत काम का है, इसलिए सभी जैन कुछ व्यक्तियो के सहयोग से इस प्रयत्न को मागे बढ़ाने अन्यालयों को खरीदना ही चाहिये। OnPage Navigation
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