Book Title: Anekant 1980 Book 33 Ank 01 to 04 Author(s): Gokulprasad Jain Publisher: Veer Seva Mandir TrustPage 12
________________ भगवान महावीर मध्यात्म-शाना रूप बष हो रहा है। इस बांध का प्रमुल कारण स्नेह-माव कर्मबन्धन से मुक्त नही हो पाता, परन्तु उस बवान पौर रागभाव है। जिस प्रकार पुलिबल स्थान में व्यायाम शान के साथ जहाँ सम्यक चरित्र रूप पुरुषार्च को करने वाले पुरुष के शरीर के साथ जो धूलि का सम्बन्ध अंगीकृत करता है वहाँ तेरा काम बनने में बिलम्ब नहीं होता है उसमें प्रमुख कारण शरीर में लगा हुमा स्नेह है, लगता। यहां तक कि अन्तमहूर्त में भी काम बन जाता उसी प्रकार कार्मणवर्गणा से भरे हुए इस संसार में योग है। प्रज्ञा-भेदविज्ञान के द्वारा कर्म धौर भास्मा को अलगरूप व्यायाम को करने वाले बीब के साथ जो कर्मों का अलग समझकर पात्मा को ग्रहण करना चाहिये पोर सम्बन्ध होता है उसमें प्रमुख कारण उसकी भात्मा में कर्म को छेदना चाहिये। ही विद्यमान स्नेह रागभाव ही है। इस प्रकार प्रध्यात्म, जीवाजीवादि पदार्थों की व्याख्या सम्यग्दृष्टि जीव बग्ध के इस वास्तविक कारण को अपन ढग से करता है। समझता है इसलिये वह उसे दूर कर निबंध अवस्था को सम्यग्ज्ञान की व्याख्या में अध्यात्म, अनेक शास्त्रों प्राप्त होता है, परन्तु मिध्यादष्टि जीव इस वास्तविक के ज्ञान को महत्व नहीं देता। उसका प्रमुख लक्ष्य पर कारण को नहीं समझ पाता इसलिये करोड़ो वर्ष की पदार्थ से भिन्न पौर स्वकीय गुण पयर्यायों से भिन्न तपस्या के द्वारा भी वह निबंध प्रवस्था को प्राप्त नहीं मात्मतत्व के ज्ञान पर निर्भर करता है। इसके होने पर कर पाता। मिथ्यादृष्टि जीव कर्म का माचरण तपश्चरण प्रष्टप्रवचनमातृका जघन्य श्रुत लेकर भी यह जीव बारहवें मादि करता भी है परन्तु उसका वह धर्माचरण भोगोपभोग गुणस्थान तक पहुंच जाता है और अन्तर्मुहतं के भीतर की प्राप्ति के उद्देश्य से होता है, कर्मक्षय के लिये नहीं।। नियम से केवलज्ञानी बन जाता है। परन्तु पात्म ज्ञान. समस्त कर्मों से रहित पात्मा की जो अवस्था है उसे के बिना ग्यारह भग और नो पूर्वो का पाठी होकर भी मोक्ष कहते हैं। मोक्ष शब्द ही इसकी पूर्व होने वाली बंध अनन्त काल तक संसार में भटकता रहता है । मन्य ज्ञानों पवस्था का प्रयत्न करता है। जिस प्रकार चिरकाल से की बात जाने दो, अध्यात्म तो केवलज्ञान के विषय में बन्धन में पडा हुमा पुरुष बन्ध के कारणों को जानता है भी यह पर्चा प्रस्तुत करता है कि केवलज्ञानी निश्चय से तथा बन्ध के भेद और उनकी तीव्र मन्द व मध्यम प्रात्मा को जानता है और व्यवहार से लोकालोक को। अवस्था की श्रद्धा भी करता है, पर इतने मात्र से वह यह ठीक है कि केवलज्ञानी की पात्मज्ञान मे ही सर्वज्ञता बन्धन से मुक्त नही हो सकता। बन्धन से मुक्त होने के निहित है, परन्तु यह भी निश्चित है कि केवलज्ञानी को लिये तो छैनी और हथौड़ा लेकर उसके छेदन का पुरुषार्थ अन्य पदार्थों को जानने की इच्छारूप कोई विकल्प नहीं करना पड़ता है। इसी प्रकार प्रनादि काल के कर्मबन्धन होता। 7 पड़ा हुमा यह जीव कर्मबन्धन के कारणों को जानता है पध्यात्म, यथास्यात चरित्र को ही मोक्ष का साक्षात् तथा उसके भेद और तीव्र मन्द व मध्यम अवस्था की कारण मानता है, क्योंकि उसके होने पर ही मोम होता श्रा भी करता है पर इतने मात्र से बह कर्मबन्धन से है। महाव्रत और समिति के विकल्परूप जो सामायिक तथा मुक्त नहीं हो सकता। उसके लिये तो सम्यग्दर्शन और छेदोपस्थाना प्रादि चारित्र है वे पहले ही निवत हो जाते सम्यग्ज्ञान के साथ होने वाला सम्यकरित्र रूप पुरुषार्थ हैं प्रौपशमिक यथास्यात चरित्र मोम का सामात् साधक करना पड़ता है। इस पुरुषार्थ को स्वीकृत किये बिना नहीं है। उसे धारण करने वाला उपशाम्त मोह गुणकर्मबन्धन से मुक्त होना दुर्लभ है। स्थानवी जीव नियम से अपनी भूमिका से पतित होकर हे प्राणी! मात्र ज्ञान और श्रद्धा के लिये हुये बेरा नीचे पाता है, परन्तु भय से होने वाला यथास्यात चारित्र सागरों पर्यन्त का दीर्घकाल यों ही निकल जाता है परन्तु मोम का सापक नियम से है। उसके होने पर यह बीव १. सदहदि य पत्तेदिय रोदि य तह पुणो य फासे दि । धम्म मोगणिमित्तं ण दु सो कम्यक्खयर्याणमित्त ।२७५॥ -समयसार कुन्कुन्दPage Navigation
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