Book Title: Anekant 1980 Book 33 Ank 01 to 04 Author(s): Gokulprasad Jain Publisher: Veer Seva Mandir Trust View full book textPage 9
________________ अनेकान्त स्वीकृत नही करतीं। चूंकि वे पुदगल के निमित्त से होते उससे घट का निर्माण नहीं हो सकता। फयितार्थ यह है हैं, प्रतः उन्हें पुद्गल मानती है, इसी तरह गुणस्थान कि घट की उत्पत्ति में मिट्टी रूप उपादान और कुन्भमार्गणा प्रादि के विकल्प को जीव के स्वभाव नही कहती। कारादि रूप निमित्त दोनों कारणों की मावश्यकता है। इन सब को प्रात्मा कहना व्यवहार दटि का कार्य है। इस अनुभवसिद्ध और लोकसंमत कार्य-कारण भाव का अध्यात्म निश्चयष्टि-निश्चयनय को प्रधानता देता निषेध न करते हुए अध्यात्म, ममक्ष प्राणी के लिए यह है, इसका यह अर्थ ग्राह्य नही है कि वह व्यवहार दृष्टि देशना भी देता है कि तू प्रात्मशक्ति को सबसे पहले को सर्वथा उपेक्षित कर देता है। प्रात्मतत्व की वर्तमान में मभाल, यदि तू मात्र निमित्त कारणो की खोज-बीन मे जी प्रशुद्ध दशा चल रही है यदि उसका सर्वया निषेध किया उलझा रहा और अपनी प्रात्मशक्ति की ओर लक्ष्य नहीं जाता है तो उसे दूर करने के लिए मोक्षमार्गरूप पुरुषार्य किया तो उन निमित्त कारणो से तेरा कौन-सा कार्य सिद्ध व्यर्थ सिद्ध होता है। अध्यात्म की निश्चय दष्टि का अभि. हो जायेगा? जो किसान, खेत की भमि को तो खब प्राय इतना ही है कि हे प्राणी । तू इस प्रशुद्ध दशा को सभालता है परन्तु बीज की अोर दृष्टिपात नहीं करता, मात्मा का स्वभाव मत समझ। यदि स्वभाव समझ लेगा उम सभाली हुई खेत की भूमि मे यदि सड़ा घुना बीज तो उसे दूर करने का तेरा पुरुषार्थ समाप्त हो जायगा। डालता है उसमे क्या अंकुर उत्पन्न हो सकेंगे ? कार्यरूप प्रास्मद्रव्य शुद्धाशुद्ध पर्यायो का समूह है, उसे मात्र शुद्ध परिणति उपादान की होने वाली है इसलिए उसकी पोर पर्याय रूप मानना सगत नही है। जिस पुरुष ने वस्त्र की दृष्टि देना प्रावश्यक है। यद्यपि उपादान निमित्त नही मलिन पर्याय को ही वस्त्र का वास्तविक रूप समझ लिया बनता और निमित्त उपादान नही बनता यह निश्चित है, है वह उसे दूर करने का पुरुषार्थ क्यो करेगा? वस्तु तथापि कार्य की सिद्धि के लिए दोनो की अनुकूलता स्वरूप के विवेचन मे अनेकान्त का प्राश्रय ही स्व-पर अपेक्षित है इसका निषेध नही किया जा सकता। का अधिकारी है, प्रतः प्रध्यात्मवादी की दृष्टि उस पर अध्यात्म और मोक्ष मार्ग होना अनिवार्य है। ___ "सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग" :-(तत्वार्थ अध्यात्म और कार्यकारण भाव सूत्र) सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र की एकता कार्य की सिद्धि मे उपादान मोर निमित्त इन दो मोक्ष का मार्ग है। इस मान्यता को अध्यात्म भी स्वीकृत कारणो को प्रावश्यकता रहती है। उपादान वह कहलाता करता है, परन्तु वह सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक है जो स्वय कार्यरूप परिणत होता है पौर निमित्त वह चारित्र की व्याख्या को निश्चयनय के साँचे में ढाल कर कहलाता है जो उपादान की कार्य रूप ररिणति मे सहायक स्वीकृत करता है उसको व्याख्या है-पर पदार्थों से भिन्न होता है। मिट्टी, घट का उपादान कारण है और ज्ञाता द्रष्टा मात्मा का निश्चय होना सम्यग्दर्शन है। पर कुम्भकार, चक्र, चीवर प्रादि निमित्त कारण है । पदार्थों से भिन्न ज्ञाता का ज्ञान होना सम्यग्ज्ञान है और जिस मिट्टी मे बाल के कणो की प्रचुरता होने से पर पदार्थो से भिन्न ज्ञाता दृष्टा प्रात्मा मे लीन होना घटाकार परिणत होने की प्रावश्यकता नही है उसके लिए सम्यक चारित्र है। इस निश्चय अथवा प्रभेद रत्नत्रय की कुम्भकारादि निमित्त कारण मिलने पर भी उसे घट का की प्राप्त कर सकता है अन्यथा नहीं। इसलिये मोक्ष का निर्माण नही हो सकता । इसी प्रकार जिस स्निग्ध मिट्टी साक्षात् मागं यह निश्चय रत्नत्रय ही है। देवशास्त्र गुरु मे घटाकार परिणत होने की योग्यता है, उसके लिए यदि की प्रतीति अथवा सप्त तत्व के श्रद्धान रूप सम्यग्दर्शन, कुन्भकारादि निमित्त कारणों का योग नही मिलता है तो जीवादि तत्वों को जानने रूप सम्यग्ज्ञान और व्रत, समिति १. एए सम्वे भावा पुग्गलदम्बपरिणामणिप्पणा । केवलजिणेहि भणिया कह ते जीवो ति बच्चंति ॥४॥ २. व य जीवटाणा ण गुणट्ठाणा य अस्थि जीवस्स । जेण दु एदे सम्वे पुग्गलदम्बस्स परिणामा ॥५॥ -समयसार, कुन्दकुन्दPage Navigation
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