Book Title: Anekant 1965 Book 18 Ank 01 to 06
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 7
________________ ' अनेकान्त बतलाया है और सर्वशता को मोक्षमार्ग में अनुपयोगी परन्तु उनका वह सर्वशत्व प्रपवर्ग-प्राप्ति के बाद नष्ट हो कहा है : जाता है, क्योंकि यह योग तथा प्रात्ममन: संयोग- जन्य गुण अथवा प्रणिमा प्रादि ऋद्धियों की तरह एक विभूति मात्र है | मुक्तावस्था में न भ्रात्मनः संयोग रहता है प्रौर न योग । अतः शानादि गुणों का उच्छेद हो जाने से वहां सर्वज्ञता भी समाप्त हो जाती है। हाँ, वे ईश्वर की सर्वज्ञता श्रनादि-अनन्त अवश्य मानते हैं । सांख्ययोग दर्शन में सर्वज्ञता की संभावना : तस्मादनुष्ठानगतं ज्ञानमस्य विचार्यताम् । कीट संख्या परिज्ञान तस्य नः क्वोपयुच्यते ॥ हेयोपादेयतत्त्वस्य साभ्युपायस्य वेदकः । यः प्रमाणमसाविस्टो न तु सर्वस्य वेदकः ॥ धर्मकीर्ति, प्रमाण वा० ३१,३२ । 'मोक्षमार्ग में उपयोगी ज्ञान का ही विचार करना चाहिए। यदि कोई जगत् के कीड़े-मकौड़ों की संख्या को 'जानता है तो उससे हमें क्या लाभ? भ्रतः जो हेय और उपावेय तथा उनके उपायों को जानता है वही हमारे लिए प्रमाण ( प्राप्त ) है, सब का जानने वाला नहीं । यहाँ उल्लेखनीय है कि कुमारिल ने जहां धमंश का निबंध करके सर्वज्ञ के सद्भाव को इष्ट प्रकट किया है वही धर्मकीति ने ठीक उसके विपरीत धर्मज्ञ को सिद्ध कर सवंश का निषेध मान्य किया है। शान्तरक्षित और उनके शिष्य कमलशील बुद्ध में धर्मज्ञता के साथ ही सर्वशता की भी सिद्धि करते हैं७ । पर वे भी धर्मज्ञता को मुख्य श्रौर सर्वज्ञता को प्रासंगिक बतलाते हैं । इस तरह हम बौद्ध दर्शन में सर्वशता की सिद्धि देख कर भी, वस्तुतः उसका विशेष बल हेयोपादेय तत्वज्ञता पर ही है, ऐसा निष्कर्ष निकाल सकते हैं । म्याय-वंशेषिक दर्शन में सर्वज्ञता की सम्भावना : न्याय-वैशेषिक ईश्वर में सर्वशत्व मानने के प्रतिरिक्त दूसरे योगी-आत्माभों में भी उसे स्वीकार करते है । ७. स्वर्गापवर्गसम्प्राप्तिहेतुज्ञोऽस्तीति गम्यते । साक्षान्न केवलं किन्तु सर्वशोऽपि प्रतीयते ॥ - तत्त्व० सं० का० ३३० । ८. 'मुख्यं हि तावत् स्वर्गमोक्ष सम्प्राप कहेतुज्ञत्वसाधनं भगवतोऽस्माभिः क्रियते । यत्पुनः प्रशेषार्थं परिज्ञातृत्व साधनमस्य तत् प्रासङ्गिकम् । सत्त्व० [सं० पृ० ८६३ । ६. 'अस्मद्विशिष्टानां युक्तानां योगजधर्मानुगृहीतेन मनसा स्वात्मान्तराकाश दिक्कालपरमाणु वायुमनस्य तत्समवेत गुण कर्म सामान्यविशेषसमवाये चावितथं स्वरूप दर्शनमुत्पद्यते, वियुक्तानां पुनः प्रशस्त पाद भाष्य, पृ० १८७ । निरीश्वरवादी सांख्य प्रकृति में और ईश्वरीवादी योग ईश्वर में सर्वज्ञता स्वीकार करते हैं । सांख्यों का मन्तव्य है कि ज्ञान बुद्धितत्व का परिणाम है और बुद्धितत्त्व महत्तत्त्व प्रकृति का परिणाम है । अत: सर्वज्ञता प्रकृति में निहित है और वह प्रपवर्ग हो जाने पर समाप्त हो जाती है। योगदर्शन का दृष्टिकोण है कि पुरुषविशेष रूप ईश्वर १० में नित्य सर्वज्ञता है भीर योगियों की सर्वज्ञता, जो सर्व विषयक 'तारक' विवेकज्ञात रूप है, भ्रपवर्ग के बाद नष्ट हो जाती है। अपवर्ग अवस्था में पुरुष चैतन्य मात्र में, जो ज्ञान से भिन्न है, अवस्थित रहता है११ । यह भी श्रावश्यक नहीं कि हर योगी को वह सर्वज्ञता प्राप्त हो । तात्पर्य यह कि इनके यहां सर्वज्ञता की संभावना तो की गई है पर वह योगज विभूतिजन्य होने से नादनन्त नहीं है, केवल सादि सान्त है । वेदान्त दर्शन में सर्वज्ञता : वेदान्त दर्शन में सर्वज्ञता को अन्तःकरणनिष्ठ माना गया है और उसे जीवनमुक्त दशा तक स्वीकार किया गया है । उसके बाद वह छूट जाती है । उस समय प्रविद्या से मुक्त होकर विद्या रूप शुद्ध सच्चिदानन्द ब्रह्म का रूप प्राप्त हो जाता है और सर्वज्ञता आत्मज्ञता में विलीन हो जाती है । अथवा उसका प्रभाव हो जाता है। जंन दर्शन में सर्वज्ञता की संभावनाएँ : जैन दर्शन में ज्ञान को श्रात्मा का स्वरूप अथवा स्वाभाविक गुण माना गया है और स्व-पर प्रकाशक १० [ 'क्लेशकर्म विपाकाशयंरपरामृष्टः पुरुषविशेष ईश्वर:'- योगसूत्र । ११ ['तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम्' - योगसूत्र १-१-३

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