Book Title: Anekant 1965 Book 18 Ank 01 to 06
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 19
________________ भनेकान्त दिया कि संस्कृत निर्वाणभक्ति पर तो प्रभाचन्द्र की टीका निर्वाणकाण्ड के जो बहुत से कथन है उनकी विस्तार से है किन्तु निर्वाणकाण्ड पर नहीं है इससे स्पष्ट होता है कि समीक्षा ५० प्रेमीजी के जैन साहित्य और इतिहास (पृ. प्रभाचन्द्र के समय या तो निर्वाणकाण्ड था ही नहीं प्रथवा ४२२-५१) में की गई है। उसले स्पष्ट प्रतीत होता है हो भी तो वे उसे दशभक्ति संग्रह की रचना नहीं मानते कि यह रचना किसी साधारण लेखक की उत्तरकालीन थे। टीकाकार प्रभाचन्द्र का समय कुछ विद्वान तेरहवी रचना है। यह बात और है कि तीर्थ सम्बन्धी दूसरी सदी में और कुछ दसवीं सदी में मानते हैं। इनमें से व्यवस्थित रचना उपलब्ध न होने से उसी को दिगम्बर दूसरा मत भी माने तो कहना होगा कि निर्वाणकाण्ड जैन समाज में बहुत अधिक प्रादर मिला है। दसवीं सदी में निर्वाणभक्ति के रूप में प्रतिष्ठित नही हुआ था। एक पौर प्रमाण है जिसमे निर्वाणकाण्ड की (६) श्रीपुर के सम्बन्ध में ऊपर जो चर्चा की है रचना पाठवीं सदी से बाद की निश्चित होती है। उसमे स्पष्ट होगा कि पुरातन समय में श्रीपुर नाम के दो निर्वाणकाण्ड में वरदत्त और वगंग का निर्वाणस्थान नगर थे एक कर्णाटक मे और दूमग विदर्भ मे (इसके तारापुर के निकट बतलाया है । यह तारापुर राजा वत्स- प्रातारक्त एक धापुर मध्य प्रदश म रायपुर अतिरिक्त एक श्रीपुर मध्य प्रदेश मे रायपुर के पास था राज ने बसाया था और इसका नाम बौद्ध देवी ताग के और एक और श्रीपुर प्रान्ध्र में था जहा इस समय कागजमन्दिर के कारण त.गपुर था ऐसी जानकारी सोमप्रभकत नगर नामक नया प्रौद्योगिक शहर बसा हुआ है) इस कुमारपाल-प्रतिबोध में मिलती है (प.प्रेमीजी-जैन में श्रीपुर का जो कोई पुराना उल्लेख मिले उमका संदर्भ साहित्य पार इतिहास पृ० ४२५-६)। इस प्रदेश के देखकर ही निर्णय करना चाहिए कि वह किस श्रीपुर इतिहास मे वत्सराज नाम का जो राजा हा था उसका का है। हरिभद्र और जिनसेन के जो उल्लेम्व श्रीमान समय पाठवीं शताब्दी है।४ प्रतः उसके द्वारा बसाये गये नेमचन्दजी ने बताये हैं उनमें विशिष्ट सन्दर्भ का प्रभाव तारापुर का उल्लेख करने वाला निर्वाणकाण्ड आठवी होने से विदर्भ स्थित श्रीपुर के ही वे उल्लेख है यह कहना सदी के बाद का है। इस समय के पहले सातवीं सदी मे सभव नहीं है। हरिभद्र का जो उद्धरण उन्होंने दिया है जटासिहनन्दि प्राचार्य न वरदत्त का निर्वाणस्थान और वह मौलिक न होकर किसी प्राधुनिक लेखक का है जिसने वरांग का स्वर्गवास स्थान मणिमान पर्वत बतलाया है, गलता सस गलती से उसका सबध अतरिक्ष पाश्वनाथ के श्रीपुर से उन्हें तागपुर नाम की जानकारी नहीं थी, इससे भी जोड़ दिया है । एसा स्थिति म हमारा मत है कि उपयुक्त कथन की पुष्टि होती है। जब निर्वागकाण्ड पार्वताथ का श्रीपुर राजा एल श्रीपाल द्वारा स्थापित आठवीं सदी के बाद का है तब न वह पहली सदी का है यह पुराने कथालेखकों का वर्णन सही है, उसे गलत हो सकता है और न ही कुन्दकुन्दकृत हो सकता है। सि सिद्ध करने वाले प्रमाण अभी उपलब्ध नहीं है। प्रभाचन्द्र के समय (दसवी सदी) में भी वह प्रसिद्ध नहीं था। अतः बहुत सभव है कि राजा एल श्रीपाल (दसवों (७) प्रसंगवश यह भी नोट करना चाहिए कि पद्मप्रभ के लक्ष्मीर्महस्तुल्य आदि स्तोत्र के प्रत्येक पद्य में सदी) के बाद की ही रचना हो । जटासिहनन्दि, रविषेण, रामगिरि का स्पष्ट उल्लेख है। प्रतः उसका श्रीपुर से गुणभद्र, पुष्पदन्त प्रादि पुरातन ग्रन्थकारों के विरुद्ध जो सम्बन्ध श्री नेमचन्द जी ने बताया है वह भी निरा४ दि एज प्राफ इम्पीरियल कनौज पृ० २१-२३। धार है।

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