Book Title: Anekant 1965 Book 18 Ank 01 to 06 Author(s): A N Upadhye Publisher: Veer Seva Mandir Trust View full book textPage 8
________________ नवसन में सर्वशताको संभावनाएं बतलाया गया है१२। यदि मात्मा का स्वभाव इत्व उद्भूत केवलज्ञान, वर्तमान, भूत, भविष्यत, सूक्ष्म, व्यव. (जानना) न हो तो वेद के द्वारा सूक्ष्मादि शेयों का ज्ञान हित मादि सब तरह के शेयों को पूर्ण रूप में युगपत नहीं हो सकता । भट्ट भकलंक ने लिखा है१३ कि ऐसा जानता है । जो त्रिकाल और त्रिलोकवर्ती सम्पूर्ण पदार्थों कोई शेय नहीं, जो स्वभाव मात्मा के द्वारा जाना न को नहीं जानता वह अनन्त पर्यायों वाले एक द्रव्य को जाय । किसी विषय में माता का होना ज्ञानावरण तथा भी पूर्णतया नहीं जान सकता और जो अनन्त पर्याय वाले मोहादि दोषों का कार्य है। जब ज्ञान के प्रतिबन्धक एक द्रव्य को नहीं जानता वह समस्त द्रव्यों को कैसे एक ज्ञानावरण तथा मोहादि दोषों का क्षय हो जाता है तो साथ जान सकता है? प्रसित विचारक भगवती मारापनाबिना रुकावट के साथ समस्त शेयों का ज्ञान हुए बिना कार शिवाय १८ और पावश्यक निर्युक्तिकार भद्रबाह गरे ज्ञान नहीं रह सकता । इसको सर्वज्ञता कहा गया है। स्पष्ट और प्रांजल शब्दों में सर्वशता का प्रबल समर्थन जन मनीषियों ने प्रारम्भ से त्रिकाल और त्रिलोकवर्ती करते हुए कहते हैं कि 'वीतराग भगवान तीनों कालों. समस्त पदार्थों के प्रत्यक्ष ज्ञान के अर्थ में इस सर्वज्ञता अनन्त पर्यायों से सहित समस्त शेयों और समस्त लोकों को पर्यवसित माना है। प्रागम-ग्रन्थों व तक ग्रन्थों में हमें को युगपत् जानते व देखते हैं।' सर्वत्र सर्वज्ञता का प्रतिपादन मिलता है। षट्खण्डागम भागम युग के बाद जब हम तार्किक युग में पाते हैं सूत्रों में कहा गया है१४ कि 'केवली भगवान् समस्त लोको, तो हम स्वामी समन्तभद्र, सिद्धसेन, प्रकलंक, हरिभद्र, समस्त जीवों और अन्य समस्त पदार्गे को सर्वदा एक पात्रस्वामी, वीरसेन, विद्यानन्द, प्रभ चन्द्र, हेमचन्द्र प्रभृति साथ जानते व देखते हैं१५ । प्राचारांग सूत्र में भी यही जैन ताकिकों को भी सर्वज्ञता का प्रबल समर्थन एवं उपकथन किया गया है१६ । महान् चिन्तक और लेखक कुन्द- पादन करने हए पाते हैं। इनमें अनेक लेखकों ने तो कन्द ने भी लिखा है१७ कि 'पावरणों के प्रभाव से सर्वज्ञता की स्थापना में महत्वपूर्ण स्वतन्त्र ग्रन्थ ही लिखे हैं। उनमें समन्तभद्र (वि. स. दूसरी, तीसरी शती) १२ 'उपयोगो लक्षणम्'-तत्त्वार्थ सू०२-८ । की प्राप्तमीमांसा, जिसे 'सर्वज्ञ विशेष परीक्षा' कहा गया १३ 'गाणं सपरपयासयं'-कुन्दकुन्द' प्रवचन साः १ है,१६ प्रकलक देव की सिद्धिविनिश्चयगत 'सर्वज्ञसिद्धि' १४ 'न खलु ज्ञस्वभावस्य कश्चितगोचरोऽस्ति यन्न विद्यानन्द की प्राप्तपरीक्षा', मनन्तीति की लघु व क्रमेत, तत्स्वभावान्तरप्रतिषेधात् ।'-अष्ट. श. अष्ट सा पृ०४७ । बृहत्सर्वज्ञ सिद्धियाँ, वादीसिह की स्यातादसिद्धिगत १५ सयं भयवं उप्पण्णणाणदरिसी..... सवलोए 'सर्वज्ञ सिद्धि' मादि कितनी ही रचनाएँ उल्लेखनीय हैं। सव्वजीवे सव्वभावे सव्वं समं जाणदि पस्सादि विह-दित्ति' यदि कहा जाय कि सर्वज्ञता पर जैन दार्शनिकों ने सब से -षट् ख० पयदि०सू० ७८। अधिक चिन्तन और साहित्य सृजन करके भारतीय दर्शन १६ से भगवं परिहं जियो केवली सम्बन्न सव्वभाव- शास्त्र को समृद्ध बनाया है तो प्रत्युक्ति न होगी। दरिसी...."सव्वलोए सव्वजीवाणं सव्वं भावाइं जाणमाणे सर्वज्ञता की स्थापना में समन्तभद्र ने जो युक्ति दी पासमाणे एवं च ण विहरद् ।' पाचारांग सू०२-३। है वह बड़े महत्व की है । वे कहते हैं कि सूक्ष्मादि प्रती१७'जं तक्कालियमिदरं जाणदि जगवं समंतदोसव्वं न्द्रिय पदार्थ भी किसी पुरुष विशेष के प्रत्यक्ष है, क्योंकि प्रत्थं विचित्त विसमं तं गाणं खाइयं भणियं ॥ १८ पस्सदि जाणदि य तहा तिणि वि काले सपज्जए सव्वे, जो ण विजाणदि जुगवं प्रत्थे तेकालिगे तिडवणत्थे। त(मह वा लोगमसेसं पस्सदि भयवं विगदमोहो। जादु तस्स ण सक्कं सपज्जयं दव्वमेकं वा ।। भ० प्रा० गा० २१४१। दव्यमणतप्पज्जयमेकमणंताणि दव्वजादाणि । १६ संभिणं पामंतो लोगमलोग च सव्वनो मन्वं । ण विजाणदिदि जुगवं कध सो दव्वाणि जाणादि ।। त त्थि जंन पासइ भूयं भवं भविस्सं च ॥ प्रवचन सा०१-४७,४८, ४६ । मावश्यक नि. गा.१२७ ।Page Navigation
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