Book Title: Anekant 1965 Book 18 Ank 01 to 06
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 14
________________ बावकमाप्ति का रचयिता कौन? श्रावकप्रज्ञप्ति में भिन्न ही देखा जाता है। ५. उपभोग परिभोग व्रत के प्रतिचार भी दोनों २. तत्त्वार्थाधिगम सूत्र में सत्याणवत के अतिचारों ग्रंथों में कुछ भिन्न स्वरूप से पाये जाते हैं। यथामे न्यासापहार भौर साकार मन्त्र भेद का ग्रहण किया गया सचित्ताहार, सचित्तसंबद्धाहार, सचित्तसंमिश्राहार, है, परन्तु श्रावकप्रज्ञप्ति में इन दो अतिचागे के स्थान में अभिपवाहार और दुष्पक्वाहार। (त० सू०७, ३०)। सहसा अभ्याख्यान और स्वदारमन्त्रभेद नाम के दो अन्य सचित्ताहार, मचित्तप्रतिबद्धाहार, अपक्वाहार, दुष्पही अतिचार ग्रहण किये गये है। क्वाहार और तुच्छौषधिभक्षण । (था० प्र० २८६)। ३. तत्त्वार्थाधिगम सूत्र में अनर्थदण्ड व्रत के प्रति ६. तत्त्वार्थाधिगम सूत्र (७, ३२) में संलेखना के चारों में असमीक्ष्याधिकरण को ग्रहण किया गया है, परन्तु अतिचार जीविताशमा, मरणासंसा, मित्रानुराग, सुखानुश्रावक प्रज्ञप्ति मे उसके स्थान में मंयुक्ताधिकरण नाम के बन्ध और निदान; ये पांच कह गये है। परन्तु श्रावकअतिचार को ग्रहण किया गया है । प्रज्ञप्ति में (३८५) वे इस प्रकार पाये जाते है-इह लोकाशंसाप्रयोग, परलोकाशंसाप्रयोग, जीविताशंसाप्रयोग, ४. तत्त्वार्थाधिगमसूत्र में (७,२६) में पोषधोपवास मरणाशसाप्रयोग और भोगाशंसाप्रयोग । व्रत के अतिचार इस प्रकार निर्दिष्ट किये गये है-अप्रत्यवेक्षित-अप्रमाजित उत्सर्ग, अप्रत्यवेक्षित-अप्रमार्जित आदान ७. तत्त्वार्थाधिगम सूत्र (७, १८) के भाष्य में निक्षेप, अप्रत्यवेक्षित-अप्रमाजित सस्तारोपक्रमण, अनादर कांक्षा अतिचार का स्वरूप इस प्रकार कहा गया है-'ऐह लौकिक-पार लौकिकेषु विषयेष्वाशसा कांक्षा' । और स्मृत्यनुपस्थान। परन्तु उसी का स्वरूप श्रावक प्रज्ञप्ति (गा०८७) में परन्तु श्रावकप्रज्ञप्ति में वे अतिचार कुछ भिन्न रूप भिन्न रूप से इस प्रकार कहा गया है-कंवा अन्नन्नदसणसे पाये जाते हैं-प्रप्रतिलेखित दुप्रतिलखित शय्या- ग्गाहो। टीका---'काक्षान्योन्यदर्शनग्राहः सुगतादिप्रणीतेषु मस्तारक, अप्रमाजित-दु प्रमाजित शय्या-सस्तारक, अप्रति- दर्शनेष ग्राहोऽभिलाप इति ।' लेखित-दुःप्रतिलेखित उच्चारादिभूमि, अप्रमाजित दुःप्रमा- ८. श्रावकप्रज्ञप्ति मे (३२१) पौषध के जो जित उच्चारादिभूमि और पौपधविषयक सम्यक् अननु- पाहारपौपध, शरीरसत्कारपोपध, ब्रह्मचर्यपौषध पौर पालन। (श्रा. प्र. ३२३-२४) । अव्यापारपौषध ये चार भेद निर्दिष्ट किये गये है उनका उल्लेख तत्त्वार्थाधिगम सूत्र (७, १६) के भाष्य में किया १. देखिये था० प्र० गाथा २८०, २८४, २८६. २९२. जा सकता था, परन्तु वह वहाँ दृष्टिगोचर नही होता। ३१८, ३२१, और ३२५-२६ । १. श्रावक प्रज्ञप्ति में १२ व्रतों की प्ररूपणा कर चुकने २. मिथ्योपदेश-रहस्याभ्याख्यान-कूटलेखक्रियान्यासापहार के पश्चात् धावक को कैसे स्थान में रहना चाहिए साकारमन्त्रभेदाः त. सू. ७-२१. (३३६) व वहाँ रहते हुए किस प्रकार का आचरण सहसा अब्भक्खाणं रहमा य सदारमतभेयं च । करना चाहिए (३४३) इत्यादि सामाचारीका मोसोवएसय कूडलेहकरणं च वज्जिज्जा ।। (३७५) कथन करते हुए गाथा ३७६ मे विशेष कर श्रा०प्र० ३६३। णीय रूप से जिन प्रतिमादिकों का भी सकेत किया ३. त० सू०७-२७ । असमीक्ष्याधिकरणं लोक प्रतीतम । है उनका निर्देश तत्त्वार्थाधिगम सूत्र और उसके (भाष्य)। भाष्य में कहीं नहीं पाया जाता है। परन्तु उपासकश्रा० प्र० २६१. संयुक्ताधिकरणम्-अधिक्रियते दशांग (पृ. २६-२६), समवायांग (११, पृ० १५) नरकादिष्वनेनेत्यधिकरणं वस्युदूग्वल शिलार पुत्रक अावश्यक मूत्र उ० (पृ० ११७-२०) चारित्र प्राभूत गोधूमयन्त्रकादिषु संयुक्तमर्थक्रियाकरणयोग्यम्, सयुक्त (२१) और रत्नकरण्ड श्रावकाचार (१३६-४७) च तदधिकरणं चेति समासः । (टीका) आदि मे उनका उल्लेख देखा जाता है।

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