Book Title: Anekant 1965 Book 18 Ank 01 to 06 Author(s): A N Upadhye Publisher: Veer Seva Mandir Trust View full book textPage 9
________________ के अनुमेय है, जैसे अग्नि । उनकी वह युक्ति यह है : की पहली युक्ति यह है कि प्रात्मा में समस्त पदार्थों को सूक्ष्मान्तरितदूरार्थाः प्रत्यक्षा: कस्यचिद्यथा। जानने की सामर्थ्य है। इस सामर्थ्य के होने से ही कोई अनुमेयत्वतोजन्यादिरिति सर्वज-मस्थितिः ।। पुरुप विशेष वेद के द्वारा भी सूक्ष्मादि ज्ञेयों को जानने में समन्तभद्र एक दूसरी युक्ति के द्वाग सर्वज्ञता के समर्थ हो मकना है, अन्यथा नहीं। हां यह अवश्य है कि रोकने वाले प्रज्ञानादि दोपों और ज्ञानावग्णादि प्रावरणों संमागे-अवस्था में जानावरण से प्रावृत होने के कारण का किसी यात्म विशेष में प्रभाव सिद्ध करते हए कहने ज्ञान मब ज्ञेयों को नहीं जान पाता। जिस तरह हम है कि 'किसी पुरुष विशेष में ज्ञान के प्रतिबन्धकों का लोगों का ज्ञान सब ज्ञेयों को नहीं जानता, कुछ सीमितों पूर्णतया क्षय हो जाता है क्योंकि उनकी अन्यत्र न्यूना- को ही जान पाता है, पर जब ज्ञान के प्रतिबन्धक कर्मों धिकता देखी जाती है। जैसे स्वर्ग में बाह्य और अन्तरंग (ग्रावरणी) का पूर्ण क्षय हो जाता है तो उस विशिष्ट दोनो प्रकार के मेलों का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है२०। इन्द्रियानपेक्ष और आत्म मात्र सापेक्ष ज्ञान को, जो स्वयं प्रतिबन्धकों के हट जाने पर ज्ञस्वभाव प्रात्मा के लिए अप्राप्यकारी भी है, समस्त ज्ञयों को जानने में क्या बाधा कोई ज्ञेय मज्ञेय नही रहता। जयों का अज्ञान या तो है२१? मात्मा में उन सब ज्ञेयों को जानने की मामयं न होने से उनकी दूसरी युक्ति यह है कि यदि पुरुषों को धर्माहोता है या ज्ञान के प्रतिबन्धकों के रहने से होता है। धर्मादि अतीन्द्रिय ज्ञेयों का ज्ञान न हो तो सूर्य, चन्द्र आदि चूकि प्रान्मा है और तप, संयमादि की पागधना द्वारा ज्योतिग्रहों की ग्रहण आदि भविष्यत् दशाग्रो और उनसे प्रतिबन्धकों का प्रभाव पूर्णतया सम्भव है, "मी स्थिति में होने वाला शुभाशुभ का अविसंवादी उपदेश कैमे हो उम वीतगग महायोगी को कोई कारण नहीं कि अगेष सकेगा? इन्द्रियों की अपेक्षा किये बिना ही उनका शेयो का ज्ञान न हो । अन्त में इस सर्वज्ञता को अहत् में अतीन्द्रियार्थ विषयक उपदेश सत्य और यथार्थ स्पष्ट देखा सम्भाव्य बतलाया गया है। उसका यह प्रतिपादन इस जाता है। प्रथवा जिस तरह सत्य स्वप्नदर्शन इन्द्रियादि प्रकार है : की महायता के बिना ही भावी राज्यादि लाभ का यथार्थ दोपावरणयोहानिनिश्शेपास्यतिशायनात् । बोध कराता है उसी तरह सर्वज्ञ का ज्ञान भी अतीन्द्रिय क्वचिद्यथा स्वहेतुभ्यो बहिरन्तमलक्षयः ॥ पदार्थों में मंवादी और स्पष्ट होता है और उसमे इन्द्रियों म त्वमेवासि निर्दोपो युक्ति शास्त्राविरोधिवाक् । की आशिक भी महायता नही होती । इन्द्रियाँ तो वास्तव प्रतिरोधो यदिष्टं ते प्रसिद्धन न वाध्यते ॥ में कम जान को दी कराती है। वे अधिक प्रो प्राप्तमी० का० ५, ६ । .. समन्तभद्र के उत्तरवर्ती मूक्ष्म चिन्तक प्रकल इदेव ने २१. कथञ्चित् स्वप्रदेशेषु स्यात्कर्म-पटलाच्छता। मर्वजता की मम्भावना में जो महत्वपूर्ण युक्तियाँ दी हैं। संसारिणा तु जीवाना यत्र ते चक्षुगदयः ॥ उनका भी यहाँ उल्लेख कर देना प्रावश्यक है। अफलक साक्षात्कतुं विरोधः, क: सर्वथा वरणात्यये । सत्यमर्थ तथा सर्व यथाऽभूदा भविष्यति ।। २०. यहाँ ध्यान देने योग्य है कि समन्तभद्र ने प्राप्त के सर्वार्थग्रहणसामच्चितन्यप्रतिबन्धिनाम् । पावश्यक ही नही, अनिवार्य तीन गुणों एव विशेप- कर्मणा विगमे कस्मात् सर्वान्नर्थान् न पश्यति ।। ' तामों में सर्वज्ञता को प्राप्त की अनिवार्य विशेषता ग्रहादि गतयः सर्वाः सुख-दुःखादि हेतवः । बतलाया है-उसके बिना वे उसमें प्राप्तता प्रसम्भव येन साक्षात्कृतास्तेन किन्न साक्षात्कृतं जगत् ।। बतलाते है : ज्ञस्यावरणविच्छेदे ज्ञेयं किमवशिष्यते । प्राप्तेनोच्छिन्नदोषेण सर्वज्ञेनागमेशिना । अप्राप्यकारिणस्तस्मात्सर्वार्थावलोकनम् ॥ भवितव्यं नियोगेन नान्यथा ह्याप्तता भवेत् ॥ न्यायविनिश्चय का० ३६१, ३६२, ४१०, ४१४, -रत्नक० श्लोक ५। ४६५Page Navigation
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