Book Title: Anekant 1965 Book 18 Ank 01 to 06
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 10
________________ - जैन दर्शन में सर्वज्ञता की संभावनाएं विषयक ज्ञान में उसी तरह बाधक हैं जिस तरह सुन्दर प्रभाव करना है उनका प्रत्यक्ष दर्शन भी मम्भव नहीं । प्रामाद में बनी हई खिड़कियां अधिक और पूर्ण प्रकाश को ऐसी स्थिति में सर्वज्ञता का प्रभाव प्रमाण भी बाधक नहीं रोकती हैं। है। इस सरह जब कोई बंधक नहीं है तो कोई कारण अकलंक की तीसरी यक्ति यह है कि जिस प्रकार नहीं कि मर्वज्ञता का मद्भाव सिद्ध न हो२३ ।। परिमारण, अणु परिमाण से बढ़ता-बढ़ता प्राकाश में महा . निष्कर्ष यह है कि प्रात्मा 'ज्ञ'-जाता है और उसके परिमाण या विभुत्व का रूप ले लेना है, क्योंकि उसकी ज्ञान स्वभाव को ढंकने वाले प्रावरण दूर होते है। प्रतः तरतमता देखी जाती है, उसी तरह ज्ञान के प्रकर्ष में भी आवरणों के विच्छिन्न हो जाने पर ज्ञस्वभाव प्रात्मा तारतम्य देखा जाता है। अतः जहाँ वह ज्ञान सम्पूर्ण लिए फिर शेप जानने योग्य क्या रह जाता है? अर्थात अवस्था (निरतिशयपने) को प्राप्त हो जाय वहीं सर्वज्ञता कुछ भी नहीं। अप्राप्यकारी ज्ञान से सकलार्थ विषयक या जाती है। इम सर्वज्ञता का किसी व्यक्ति या समाज ज्ञान होना अवश्यम्भावी है। इन्द्रियां और मन मकलार्थ ने ठेका नहीं लिया। वह प्रत्येक योग्य साधक को प्राप्त परिज्ञान में साधक न होकर बाधक है। वे जहां महों है। हो सकती है। और आवरणो का पूर्णत. प्रभाव है वहाँ कालिक और उनकी चौथी युक्ति यह है कि सर्वज्ञता का कोई त्रिलोकवर्ती यावज्जयों का साक्षात् ज्ञान होने में कोई बाधा बाधक नही है। प्रत्यक्ष प्रादि पांच प्रमाण तो इसलिए नहा हा बाधक नही हो सकते क्योंकि वे विधि (अस्तित्व) को प्रा० वीरसेन२४ और प्रा० विद्यानन्द२५ ने भी इसी विषय बनाते हैं। यदि वे सर्वज्ञता के विषय में दखल दे आशय का एक महत्वपूर्ण श्लोक प्रस्तुत करके उसके द्वारा नो उनमे उसका सदभाव ही सिद्ध होगा। मीमासको का ज्ञ स्वभाव अात्मा में सर्वज्ञता की सम्भावना की है। वह प्रभाव-प्रमाण भी उसका निषेध नहीं कर सकता। क्योंकि लोक यह है .प्रभाव-प्रमाण के लिए यह यावश्यक है२२ कि जिसका ज्ञो ज्ञये कथमज्ञः स्यादसति प्रतिबन्धने । प्रभाव करना है उसका स्मरण और जहां उसका प्रभाव दाह्मग्निर्दाहको न स्यादसति प्रतिबन्धनं ।। करना है वहाँ उराका प्रत्यक्ष दर्शन आवश्यक ही नहीं, जयधवला पृ०६६, अष्ट म० पृ० ५० । अनिवार्य है। जब हम भूतल में घड़े का प्रभाव करते है अग्नि में दाहकना हो और दाह्य-ईधन सामने हो तथा नो वहाँ पहले देखे गये घड़े का स्मरण और भूनल का बीच में रुकावट न हो तो अग्नि अपने दाह्म को क्यो नही दर्शन होता है, तभी हम यह कहते है कि यहाँ घड़ा नहीं जलावेगी? ठीक उसी तरह प्रान्मा ज्ञ (जाना) हां, और है। किन्तु तीनो (भूत, भविष्यत् और वर्तमान) कालों जय मामने हों तथा उनके बीच में कोई रुकावट न रहे तथा तीनो (उर्व मध्य और अघो) लोको के अतीत, तो ज्ञाता उन ज्ञया को क्यों नहीं जानेगा? यावरणों के अनागत और वर्तमानकालीन अनन्त पुरुपो में सर्वज्ञता, प्रभाव में स्वभाव प्रात्मा के लिए प्रामन्नता और दूरता 'नहीं थी, नहीं है और न होगी', इस प्रकार का ज्ञान ये दोनो भी निरर्थक हो जाती है। शेप पृ०६ पर उमी को हो सकता है जिसने उन तमाम पुरुपो का साक्षा- . -- त्कार किया है। यदि किमी ने किया है तो वह सर्वज्ञ हो २३. 'अम्ति गवंज्ञ. मुनिश्चितामभवद्बाधकप्रमाणत्वान, जायगा। साथ ही सर्वज्ञता का स्मरण सर्वजता के प्रत्यक्ष नुवादिवत् । नुयादिवत् ।' सिद्धिवि०व०८-६ तथा अप्ट० श. अनुभव के बिना सम्भव नही और जिन कानिक और का०५। त्रिलोकवी अनन्त पुरुषों (पाधार) मे सर्वज्ञता का २४. विशप के लिए वारसन की जयधवला (पृ. ६४ में ६६)। २२. गृहीत्वा वस्तु मद्भावं स्मृन्वा च प्रतियोगिम् । . २५. विद्यानन्द के आग्नपरीक्षा, अष्टमहस्री प्रादि ग्रन्थ मानम नास्तिताजानं जायतेऽक्षानपेक्षया ॥ देख ।

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