Book Title: Anekant 1965 Book 18 Ank 01 to 06
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 5
________________ . . . . जैन-दर्शन में सर्वज्ञता की संभावनाएँ पं० दरबारीलग्न छन कोठिया एम. ए. न्यायाचा तज्जयति परं ज्योतिः समं समस्तैरनन्तपर्याः। नहीं १ । पुरुष रागादि पोंके युक्त है और रागादि दोष दर्पणतल इव सकला प्रतिफलति पदार्थमालिका यत्र॥ पुरुषमात्र का स्वभाव हैं तथा वे किसी भी पुरुष से सर्वथा -अमृतचन्द्र, पुरुषार्थसिद्धय पाय ॥१॥ दूर नहीं हो सकते। ऐसी हालत में रागी-देपी-अज्ञानी पुरुषों के द्वारा उन. धर्मादि अतीन्द्रिय पदार्थों का ज्ञान पृष्ठभूमि : संभव नहीं है। शवर स्वामी अपने शावर-भाष्य (१-१-५) भारतीय दर्शनों में चार्वाक और मीमांसक इन दो में लिखते हैं:दर्शनों को छोड़कर शेष सभी (न्याय-वैशेषिक, साख्या 'चोदना हि भूतं भवन्तं भविष्यन्तं सूक्ष्म व्यवहितं योग, वेदान्त, बौद्ध और जैन) दर्शन सर्वज्ञता की सम्भा- विप्रकृष्टमित्येवजातीयकमर्थमवगमयितुमलं, नान्यत् किंचबना करते तथा युक्तियों द्वारा उसकी स्थापना करते हैं। नेन्द्रियम्।' साथ ही उसके सद्भाव में पागम-प्रमाण भी प्रचुर मात्रा इससे विदित है कि मीमांसक दर्शन सूक्ष्मादि प्रतीमें उपस्थित करते हैं। न्द्रिय पदार्थों का ज्ञान चोदना (वेद) द्वारा स्वीकार करता है किसी इन्द्रिय के द्वारा उनका ज्ञान सम्भव नहीं सर्वज्ञता के निषेष में सर्वाक दर्शन का दृष्टिकोण: मानता। शवर स्वामी के परवर्ती प्रकाण्ड विद्वान् भट्ट चार्वाक दर्शन का दृष्टिकोण है कि 'यददृश्यते तदस्ति' 'कुमारिल भी किसी पुरुप में सर्वज्ञता की सम्भावना का यन्न दख्यने तन्नस्ति'-इन्द्रियों से जो दिखे वह है और अपने मीमांसा श्लोकवार्तिक में विस्तार के साथ पुरजोर जो न दिखे वह नहीं है। पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु से खण्डन करते हैं । पर वे इतना स्वीकार करते है कि हम चार भूत-तत्व ही दिखाई देते हैं । अतः वे हैं । पर उनके १. तथा वेदेतिहासादि ज्ञानातिशयवानपि । अतिरिक्त कोई प्रतीन्द्रिय पदार्थ दृष्टिगोचर नहीं होता। न स्वर्ग-देवतापूर्व-प्रत्यक्षीकरण क्षमः ।। अतः वे नहीं हैं। सर्वज्ञता किसी भी पुरुप में इन्द्रियों द्वारा भट्ट कुमारिल, मीमासा श्लोक वा। ज्ञात नहीं है और अज्ञात पदार्थ का स्वीकार उचित नही २. यज्जातीयः प्रमाणैस्तु यज्जातीयार्थदर्शनम् । है। स्मरण रहे कि चार्वाक प्रत्यक्ष प्रमाण के अलावा दृष्ट सम्प्रतिलोकस्य तथा कालान्तरेऽण्यभूत्॥११२-सू०२ अनुमानादि कोई प्रमाण नहीं मानते । इसलिए इस दर्शन यत्राप्यनिशयो दृष्टः स स्वार्थानतिलघतात् । में प्रतीन्द्रिय सर्वज्ञ की सम्भावना नहीं है। दूरसूक्ष्मादिदृष्टी स्यान्न रूपे श्रोत्रवृत्तिता ॥११४ येऽपि सातिशया दृष्टाः प्रज्ञामेधादिभिनंराः । मीमांसक वर्शन का मन्तव्यः स्तोक स्तोकान्तरत्वेन नत्वतीन्द्रिय दर्शनात् ।। मीमासकों का मन्तव्य है कि धर्म, अधर्म, स्वर्ग, देवता, प्राज्ञोऽपि हि नरः सूक्ष्मानर्थान् द्रष्टु क्षमोऽपि सन । मरक, नारकी मादि मतीन्द्रिय पदार्थ है तो अवश्य, पर स्वजातीरनतिक्रमान्नतिशेते परान्नगन् । उनका ज्ञान वेद द्वारा ही सम्भव है, किसी पुरुष के द्वारा एकशास्त्रविचारे तु दृश्यतेऽतिशयो महान् । न तु शस्त्रान्तरज्ञानं तन्मात्रणव लभ्यते ॥ अखिल भारतीय दर्शन परिषद् के दशम वार्षिक ज्ञात्वी व्याकरणं दूरं बुद्धिः शब्दापशब्दयोः । अधिवेशन में प्रायोजित गोष्ठी में पठित । प्रकृष्यति न 'नक्षत्र-तिथि-ग्रहणनिर्णये ॥

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