Book Title: Anekant 1955 Book 13 Ank 01 to 12 Author(s): Jugalkishor Mukhtar Publisher: Veer Seva Mandir Trust View full book textPage 8
________________ वर्ष १३] श्रीहीराचन्द्रजी बोहराका नम्र निवेदन [२७१ 'ग्रहण किये हुए व्रतोंके धारण और पालनकी इच्छा समाधानमें पा गया है । सम्यग्दष्टिके शुभ परिणाम जब रखना, एक क्षणके लिए भी बतभंगको अनिष्टकारक सर्वथा बन्धके कारण नहीं तब शंकाके तृतीय अंशके लिये कोई समझना, निरन्तर साधुओंकी संगति करना, श्रद्धा-भक्ति स्थान ही नहीं रहता । धर्मको प्रकट के भीतर जो प्रादिके साथ विधिपूर्वक उन्हें प्राहारादि दान देना, श्रम या 'मुनिका देने वाला' बतलाया है वैसा एकान्त भी जिनथकान दूर करनेके लिए भोगोंको भोग कर भी उनके परि- शासनमें नहीं है। जिनशासनमें धर्म उसे प्रतिपादित किया त्याग करनेमें अपनी असामयकी निन्दा करना, मदा है जिससे अभ्यदय तथा निःश्रेयसकी सिद्धि होती है, जैसा घरवारके त्याग करनेकी वांछा रखना, धर्मश्रवण करनेपर कि सोमदेवसरिके निम्न वाक्यसे प्रकट है जो स्वामी समंतअपने मनमें अति पानन्दित होना, भकिसे पंचपरमेष्ठियोंको भद्रके निःश्रेयसमभ्यदयं इत्यादि कारिकाके वचनको लक्ष्यमें स्तुति-प्रणाम द्वारा पूजा करना, अन्य लोगोंको भी स्वधममें लेकर लिखा गया है:स्थित करना, उनके गुणांको बढ़ाना, और दोषोंका उपगृहन 'यतोऽभ्युदयनिःश्रेयससिद्धिः स धर्मः (नीतिवाक्यामृत) करना, साधर्मियोंपर वात्सल्य रखना, जिनेद्रदेवके भक्तोंका ४ शंका-उत्कृष्ट द्रालगी मुनि शुभोपयोगरूप उपकार करना, जिनेन्द्रशास्त्रोंका आदर-सत्कार-पूर्वक पठन- उच्चतम निदोष क्रियानोंका परिपालन करते हुए भी। पाठन करना, और जिनशासनको प्रभावना करना, इत्यादि (यहाँ तक कि अनंतवार मुनिव्रत धारण करके भी) गृहस्थों का शुद्धोपयोग है। मिथ्यात्व गुणस्थानमें ही क्यों पड़ा रह जाता है ? आपके इस सब कथनसे स्पष्ट जाना जाता है कि जिन दान, लेखानुमार तो वह शुद्धत्वके निकट ( मुक्रिके निकट ) पूजा, भकि, शील, संयम और व्रतादिके भावोंको हमने होना चाहिए । फिर शास्त्रकारोंने उसे असंयमी सम्यग्दृष्टिसे केवल शुभ परिणाम समझ रक्खा है उनके भीतर कितने ही भी हीन क्यों माना हैं ? शुद्ध भावोंका समावेश रहता है, जिन पर हमारी दृष्टि ही समाधान-द्रयलिंगी मुनि चाहे वह उत्कृष्ट नहीं है-हमने शुद्ध भावोंकी एकान्ततः कुछ विचित्र ही द्रव्यलिंगी हो या जघन्य, सम्यग्दृष्टि नहीं होता और इस कल्पना मनमें करली है-यहाँ तो अहिंसादि शुभकर्मोके लिए उसकी क्रियाएँ सम्यक्चारित्रकी दृटिसे उच्चतम चित्तमें चिन्तनको भी शुद्धोपयोगमें शामिल किया है। तथा निदोष नहीं कही जा सकती। निर्दोष क्रियाएँ वही ३शका-जिन शुभभावोंसे कोका श्राव होकर होती हैं जो सम्यग्ज्ञानपूर्वक होती हैं । सम्यग्ज्ञानपूर्वक न बंध होता है. क्या इन्हीं शुभभावोस मुक्रि भी हो सकी होनेवाली क्रियाएँ मिथ्याचारित्रमें परिगणन है, चाहे वे है ? क्या एक हा परिणाम जो बंधक भी कारण है, वे ही बाहरसे देखनेमें कितनी हा सुन्दर तथा मंचकर क्यों न मुनिका कारण भी हो सकते है। यदि ये परिणाम बंधक मालूम दती हो, उन्हें मतक्रियाभाम कहा जायगा और व ही कारण हैं तो इन्हें धर्म (जो मुक्रिका देने वाला) कैस सम्थकचारित्रके फलको नहीं फज सकगी, जब तक उस माना जाय ? द्रालगा मुनिक प्रान्माको सम्यग्दर्शनको प्राप्ति नहीं होगी समाधान-सम्यग्दृष्टिक वे कौनसे शुभ भाव है तब तक वह मिथ्यात्व गुणस्थानने हा चला जा+गा। जिनस कवल कर्मो का प्राव होकर बन्ध ही होता है, मुझे मेरे उस लेखमें कहीं भी द्रव्यलिगी मुनियों की क्रियाए उनका पता नहीं । शंकाकारको उन्हें बतलाना चाहिए था। विवक्षित नहीं है-शुभभावरूप जो भी क्रियाएँ विवक्षित ह पहली-दूसरी शंकाओंफै समाधानसे तो यह जाना जाता है व सब सम्यग्दृष्टिको विवक्षित है चाहे वह मुनि हो या कि सम्यग्दृष्टिके पूजा-दान-व्रतादि रूप शुभभाव अधिकांशमें श्रावक अतः मेरे लेखानुपार वह व्यलिंगी मुनि शुद्धत्तके कार्यक्षय अथवा कर्मोकी निर्जराके कारण हैं और इसलिए निकट होना चाहिए ऐसा लिखना मेरे लेख तथा उसकी मुक्रिमें सहायक हैं। मिश्रभावकी अवस्थामें ऐसा होना दृष्टि को न समझनेका ही परिणाम कहा जा सकता है। साभव है कि एक परिणामके कुछ अंश बन्धक कारण हो ५शंका-यदि शुभभावों में अटक रहनेस इग्नका और शेष अंश बन्धके कारण न होकर कर्मोकी निर्जरा कोई बात नहीं है तो संमागे जीवको अभी तक मुकि क्यों अथवा मुक्तिके कारण हो। सराग सम्यक् चारित्रकी अवस्था नहीं मिली? अनादिकालसं जीवका परिभ्रमण क्यों हो प्राय: ऐसा ही होता है और इसका खुलामा पहली शंकाके रहा है ? क्या वह अनादिकालस पापभाव ही करता पायाPage Navigation
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