Book Title: Anekant 1955 Book 13 Ank 01 to 12 Author(s): Jugalkishor Mukhtar Publisher: Veer Seva Mandir Trust View full book textPage 6
________________ श्रीहीराचन्द्रजी बोहराका नम्र निवेदन और कुछ शंकाएँ [गत किरण से आगे शंका और समाधान इसी बात को श्रीवीरसेनाचार्यने, अपनी जयधवला बकीबोराजोतीकोनताको संख्या टोकामें, और भी स्पष्ट करके बतलाया है। वे सरागसंयममें ११ हैं। शंकाओंके समथनमें प्रस्तुत किये गये प्रमाणोंका मुनियोंकी प्रवृत्तिको युक्रयुक्त बतलाते हुए लिखते हैं कि उपर निरसन एवं कर्थन हो जानेपर जब वे प्रमाण-कटिमें उससे बन्धकी अपेक्षा असंख्यातगुणी निर्जरा (कर्मोंसे मुक्कि) स्थिर नहीं रह सके-परीक्षाके द्वारा प्रमाणाभास करार दे होती है । साथ ही यह भी लिखते हैं कि भावपूर्वक परंहतदिये गये-तब उनके बलपर प्रतिष्ठित होनेवाली शंकाओं में नमस्कार भी-जो कि भक्रिभाव रूप सराग चारित्रका ही यद्यपि कोई खास सत्व या दम नहीं रहता. विज्ञ पाठकों- एक अंग है-बन्धकी अपेक्षा असंख्यात गुणा कर्मचयका द्वारा उपरके विवेचनी रंशन में उनका महज ही समाधान कारण है, उसमें भी मुनियोंकी प्रवृत्ति होती है:हो जाता है, फिर भी कि श्रीबोहराजीका अनुरोध है कि “सरागसजमो गुणसेढिणिज्जराए कारणं,तेण बंधादो मैं उनकी शंकाओं का समाधान करके उसे भी अनेकान्तमें मोक्खो असंखेज्जगुणो त्ति सरागसंजमे मुणीणं बट्टणं प्रकाशित कर दू और तदनुसार मैंने अपने इस उत्तर लेखक जुन्मदि ण पच्चवट्टाणं कायव्यं । अरहंतणमोकारो प्रारम्भमें (पृ. १४. पर ) यह सूचित भी किया था कि सपहिय बंधादो असखेज्जगुणकम्मक्खयकारओत्ति तत्थ "उनकी शकाओंका समाधान आगे चलकर किया जायगा, यहाँ विमुणीणं पत्तिप्पसंगादो। उत्तंचपहले उनके प्रमाणोंपर एक दृष्टि डाल लेना और यह अरहंतणमोकारं भावेण जो करेदि पयडमदी । मालूम करना उचित जान पड़ता है कि वे कहाँ तक उनके सो सव्वदुरखमोक्खं पावइ अचिरेण कालेण ।” अभिमतविषयके समर्थक होकर प्रमाणकोटि में ग्रहण किये इसके सिवाय, मूलाचारके समयसाराधिकारमें यत्नाचारसे 'जा सकते हैं।" अतः यहाँ बोहराजीकी प्रत्येक शंकाको चलनेवाले दयाप्रधान साधुके विषयमें यह साफ लिखा है कि क्रमशः उद्धत करते हुए उसका यथावश्यक संक्षेपमें ही उसके नये कर्मका बन्ध नहीं होता और पुराने बैंधे कर्म समाधान नीचे प्रस्तुत किया जाता है : झड़ जाते हैं अर्थात् यत्नाचारसे पाले गये महावतादिक १ शंका-दान, पूजा. भक्रि, शील, संयम, महावत, मंवर और निर्जराके कारण होते हैंअणुव्रत प्रादिके परिणामों कर्मोका प्रास्रव बन्ध होता है जदं तु चरमाणस्स दयापेहुस्स भिक्खुणो। या संवर निर्जरा! एवं ण बज्झदे कम्मं पोराणं च विधूयदि ॥२३॥ समाधान -इन दान, पूजा और व्रतादिकके परि- यत्नाचारके विषयमें महावती मुनियों और अणुवती णामोंका स्वामी जब सम्यग्दृष्टि होता है, जो कि मेरे लेखमें श्रावकोंकी स्थिति प्रायः समान है, और इसलिये यत्नाचारसे सर्वत्रविवक्षित रहा है, तब वे शुभ परिणाम अधिकांशमें पाले गये अणुव्रतादिक भी श्रावकोंके लिये संवर-निर्जराके संवर-निर्जराके हेतु होते हैं, प्रास्त्रवपूर्वक बन्धके हेतु कम कारण हैं ऐसा समझना चाहिये। पड़ते हैं। क्योंकि उस स्थितिमें वे सराग सम्यक्चारित्रके अंग यहां पर मैं इतना और भी स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि कहलाते हैं । सम्यक् चारित्रके साथ जितने अंशोंमें रागभाव सम्यक्चारित्रके अनुष्ठानमें, चाहे वह महावतादिकके रूपमें रहता है उतने अंशों में ही कर्मका बन्ध होता है, शेष सब हो या अणुप्रतादिकके रूपमें, जो भी उद्यम किया जाता चारित्रोंके अंशांसे कर्मबन्धन नहीं होता-वे कर्मनिर्जरादिके या उपयोग लगाया जाता है वह सब 'तप' है, जैसा कि कारण बनते हैं। जैसा कि श्रीअमृतचंद्राचार्यके निम्न वाक्यसे भगवती आराधनाकी निम्न गाथासे प्रकट हैजाना जाता है चरयाम्मि तम्मि जो उज्जमो य पाउंबायो बजो हो । येनांशेन चरित्रं तेनांशेनाऽस्य बन्धनं नास्ति । सो चेव जिणेहिं तवो भणियं असलं परंतस्स men येनांशेन तु रागस्तेनांशेनाऽस्य बन्धनं भवति ॥(पु.सि.) इसी तरह इच्छाके निरोधका नाम भी 'तप' है जैसाकिPage Navigation
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