Book Title: Anekant 1955 Book 13 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 5
________________ अमजिनदास-विरचिता धर्म-पंचविंशतिका [यह ग्रन्थ, मार्च सन् १९५० में अयपुरके शास्त्रमण्डारोंका अवलोकन करते हुए, मुझे बलदेवजी बाकलीवालके त्यासय-स्थित शास्त्रमंडारके गुटका नं. १५ से उपलब्ध हुपा है, जिसकी मार्चको प्रतिलिपि कराई गई थी। यह प्राकृतमें धर्म-विषयको २५ गाथाओंको लिये हुए है, इसीसे इसका एक नाम धर्म-पंचविंशतिका है। २५वीं गाथामें कविने अपना नाम जिनदास दिया है, अपनेको ब्रह्मचारी बतलाया है और ग्रन्थका नाम 'धर्मविलास' भी सूचित किया है। अन्तिम पुष्पिका-वाक्यमें जिमदासको त्रैविध नेमिचन्द सैद्धान्तिक प्राचार्यका प्रियशिष्य लिखा है जिनका 'चक्रवर्ती विशेषण कुछ अतिरिक एवं प्रतिलिपि लेखककी कृति जान पड़ता है। नेमिचन्द्र और जिनदास नामके अनेक विद्वान् हो गये हैंथे जिनदास कौनसे हैं यह अभी गवेषणीय है। -जुगलकिशोर मुख्तार ] धर्मपंचविंशतिका भव्वकमलमार्य सिद्ध जिण तिहुवणिंद-सद-पुज्जं। कमलासहाव चवला जोव्वरण-लावण-रूव-जरगहिया । नेमिससि गुरुवीरं पणमिय तियसुद्धिभवं महणं ॥११॥ पिय पुत्त-सज्जणाणं संजोश्रोणावजह मणिो ॥१५॥ संसारमजिक जीवो हिंडइ मिच्छत्त-विसय-संचित्तो। य जाणि चित्तमज्मे धम्मं आयरहि भावसुद्धय । अलहंतो जिणधम्म बहुविहपज्जाई गिरहेई ॥२॥ जह भावा तह धम्मा तहविह गइ कम्भ भुजंता ॥१६॥ . चमाइ-दुह-संतत्तोचउरासीलक्खजोणि अइखिएणो। जे मूढ मंदबुद्धी जिणपडिमा-धम्म-मणिहि-पडिकूला। कम्मफलं भुजंतो जिणधम्मविवज्जिो जीवो ||३|| विसयामिसत्थ-लुद्धा थावर ते होहिं वयहीणा ॥१७॥ अइदुलहं मणुयत्तं नवं नीरोय-देह-कुल-लच्छी। जे णिचअहमदा कोहाइचउक्क-मच्छरहिजुत्ता। बइ धम्मंण वियाणइपुणरवि ए य हवइणरजम्मं ॥४॥णियवइरठिया ते णरए णिवडनि हय-धम्मा ॥१८॥ धम्मत्थकामसाहणविणा मणुम्साउ पसुजहा बियला। आलस्सा मंदधिया मुद्धा लद्धा पचंचट्ठिचित्ता। धम्म भणंति पवरं तं विणु अत्थं ण कामं च ॥५॥ कामी माणी परगुण]च्छायणसीला य ते तिरिया॥१६॥ पढमं किज्जइ धम्म विग्घहरं सिद्धि हुंति सयलाई। जे सरला दयजत्ता कज्जाकज्ज वियारगुणवंता। लच्छी तहागिहि आवे मुहसंगमु इच्छए तस्स ॥६॥ माया-कवड-विहीणा भत्तिजदा ते हवहिं मणुसा ॥२०॥ णिगुणभवम्मि भमिहिसि जोव जरामरणजम्मवसिरोसि तिन्हाकया विनकया जिणवयण-रसायणे पाणं जा जिणधम्मवयारत्ता जिणअच्चा-पत्तदाण संजुता। अविरद-विसय-विरत्ता सुट्ठतवा होहिं वरदेवा ॥२१॥ जो को वि मूढबुद्धी जिणधम्मत्थंमि विसय अणुहवइ । लहिऊण चम्मदेहं जिणसुत्तं सुणिव भोयनिविण्णा। सो श्रमियरसं मुचिवि गिबहाइ हलाहलं पवरं ॥८॥ गिहिद-महव्वय-भारा भाटिया मुतिपुरि-पत्ता ॥२२॥ मिच्छ-दुरगह-गहिया धम्म छंडवि बिसय जे लग्गा। ते कप्पविक्खखंडाव कणयतरुवखणं कुहि ॥६॥ धम्मेण य सयनसुहं पावेण य पवरदुक्ख-विविहाई । इंदिबला अवलादय भणंति णिय इट्ठा आयरहिं ॥२३॥ णरजम्मं वर जाणिवि छंडिवि विसयाई धम्मु आयरहि । जिणधम्म मोक्खटुं अण्णाण हवेहिं हिसगायरणं । इंदाइसहं भुजवि ते तिहुवरण पुज्जिया हवहि ॥१०॥ इय जाणि भब्वजीवा जिणअक्खियधम्मु आयरहि ॥२४ चंदविहरणी रयणी कविवज्जिद हवेइ वर तरुणी। सहायणकरि दंतह विणु धम्मिणरभवो तह ॥११॥ हिम्मल-दसण-भत्ती-वय-अणुपेहा य भावणा चरए । पवरदल चिंधचामर-मायंग तुरंग-रह-बरा सुहडा। अंते सल्लेहण करि जइ इच्छहि मुत्तिवररमणी ॥२५॥ णरवा-विहीण जेहा णरजम्मं धम्मविणु तेहा ॥१२॥ मेहाकुमुणिचंदं भवदुह-सायरई जाण पत्तमिणं । जह निम्गंधं कुसुमं नीरविहूणं सरोवरं पवरं। धम्मविलासं सहदं णिदं जिणदास-बह्मण ॥२६॥ लच्छिविहणं गेहं तहा नरो धम्मविणु कहियो ॥१३॥ इति त्रैविद्य-सैद्धांतिक-चक्रवाचार्य (1) श्रीनेमिबाराहंति जिदं गुरुचरणं सयलजीवदयजुत्तं । चंद्रस्य प्रिय-शिष्य-ब्रह्मश्रीजिनदास-विरचितं धर्मधम्मि सणेहं दाणं कुपति जे ते नरा सहला ॥१४॥ पंचविंशतिकानाम शास्त्रं समान ।

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