Book Title: Anekant 1954 Book 12 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 24
________________ [किरण १ कर्मीका रासायनिक सम्मिश्रण [१५ सामाजिक या राजनैतिक आदेशों और किसी भी समय- ऐसी व्याख्या दे सकते हैं जो हर समय हर हालतमें ठीक, के व्यवहत रीति-नीतिके अनुसार बदलते भी रहते हैं। सही और लागू हो और कभी न बदले । फिर भी ये दोनों भिन्न भिन्न देशों, लोगों और धर्मों में इनकी व्याख्या या (पाप श्रीर पुण्य)बाकी पाँच तत्वोंमें समिहित हैं या विवरण काफी भिन्नता लिए हुए हैं। जो एकके यहां उन्हींक कोई विशेष भाग है और यदि कोई व्यक्ति उन पाप है हो सकता है कि दूसरेके यहां "वही हलाल" हो पाँच तत्वों और षद् द्रव्यांको अरछी तरह जान और समझ Virtue (वर्च) हो और जो दूसरे के यहाँ "हराम" जाय तो उपके लिए इनकी अलग व्याख्याकी जरूरत नहीं रह जाती। या Sin (सिन) हो वह एकके यहां पुण्यमय माना । विभिन दर्शन पद्धतियों या धमावलम्बियाने संसारकी जाता हो। ऐसे उदाहरण संसारके भिन्न धर्मावलम्बियो उत्पत्ति और जीवधारियांकी जीवनी इत्यादिक बारेम और जातियोंके रीति-रिवाजों या इतिहासाका अध्ययन, विभिन्न मत दिए हैं जो अाजक आधुनिक विज्ञानके खोजों, मनन, अवलोकन करनेसे बहुतेरे मिलेंगे। एक ही रीति प्रयोगों और आविष्कार-द्वारा बहुत कुछ या एकदम ग़लत जो किसी समय पुण्यमय मानी जाती रही हो वही दूसरे और भ्रमपूर्ण सिद्ध हो जाते है। फिर भी लोग दूसरा ठीक समय पापमय या ग़लत समझी जान लगती है अथवा कुछ नही जाननेके कारण या प्राचीन समयसे अब तक जो रीति कभी बुरी समझी जाती हो वह कुछ समयके पुश्त दर पुश्तम उसी प्रकारकी याताको मानने और उन्हींम बाद अच्छी सराहनीय समझी जाने लगती है। दोनोंके विश्वास करते रहनेके कारण ऐसे बन गये हैं कि गलती दो उदाहरण हमारे सामने हैं। सती-प्रथा और विदेश जान कर भी उसमे सुधार नहीं कर पाते और भ्रम, यात्रा । सती प्रथा पहले अच्छी बात थी अब वर्जित है। मिथ्यात्व नथा अव्यवस्था ज्या-की त्यो चलती जाती हैं। विदेश-यात्रा पहले वर्जिन थी अब वही श्रादरणीय हा गई एक भारी कठिनाई, दिक्कत या कमी पीर भी है वह यह है। लोक व्यवहार अच्छे काम जिन्हें समाज और देशक है कि हमार याधुनिक भौतिक विज्ञानवेत्ता भी विज्ञानका लोग या सरकार अच्छा ठीक समझे उन्हें पुण्यमय और बहुमुखी विकास होने पर भी अब तक इस बातकी निश्चित जो इनके द्वारा बुरे समझ जाय वै पापमय है। इनके व्यवस्था या निर्णय नहीं दे सके हैं कि मानबकी 'संजान अतिरिक्त कुछ ऐसे भी कर्म है जो सर्वदा ही मभी देशम चेतना' का क्या कारण है और मानव या दृमरे जीवबुरे समझे जाते हैं उन्हें हम पाप कह सकत है। पर जी धरियांक या स्वभाविक वृनि, जीवनी, चर्या, आदि नरह काम मानवक लिये पाप है वही एक पशु के लिये स्वाभा तरहकी विभिन्नताएं हम देखते या पाते हैं उनका मूल विक हो सकता है। अादिम लाग या जातियां मनुष्य-भक्षी कारण क्या है। अाजका ससार उम्हीं बानांको ठीक बी-मनुष्य भक्षण उ.में पाप नहीं गिना जाता था-पर मानता है जिनके विषय में वैज्ञानिक लोग अपने प्रयोग, जैसे-जैसे सभ्यता, संस्कृति और शिक्षाका विकास होता अन्वेषण, अनुसंधान, ग्वाज, हूँढ़, जांच-पड़ताल इत्यादि गया, वे रीतियों या मान्यताएँ भी बदलनी गई । श्राज द्वारा देवकर, परीक्षाकर, विवेचना करके ठीक निश्चित मनुष्य-भक्षण सबसे महान् पाप गिना जाता है। फिर भी परिणाम या निर्णय निकालकर संसारके सामने रख देते जैनदर्शन या जैनधर्म और दूसरे कुछ धर्म हिंसा या मायाका प्रत्यक्ष दर्शन करके ही उनकी मांस-भक्षयको एक बड़ा हानिकारक पाप समझते हैं। स्वीकृति देता है। परन्तु आधुनिक विज्ञान भी अबतक संसारके निन्यानवे फीसदी लोग मांस-भक्षी हैं। इस तरह शरीरका रूप और उसके कर्मसे शरीरकी बनावटके साथ लोक-व्यवहारकी दृष्टिसे पाप-पुण्यके कोई स्थायी नियम कोई आन्तरिक गहरा सम्बन्ध खुले शब्दोंमें स्थापित नहीं नहीं हो पाते । और भी यह कि मनुष्य परिस्थितियों और कर सका है। मानवके शरीरका या किसी भी जीवधारीके और आवश्यकताका गुलाम है और उसमें बढ़ी भारी शरीरका अान्तरिक निर्माण, बाघ गठन या रूप-रेखा ही कमियां या कमजोरियों हैं जिनपर विजय न पा सकनेके उसके कर्मों या हलन चलनको निर्मित, नियन्त्रित परिचाकारण वह ऐसे-ऐसे काम करता ही रहता है जो वर्जित है लित और परिवर्तित करती रहती है इसकी स्थापना, या जो उसके लिए स्वयं हानिकारक हैं। लेकिन यदि तत्वों- व्यवस्था और सम्यक् (विधिवत वैज्ञानिक Systemoकी दृष्टिसे देखा जाय तो हम पाप और पुण्यकी भी एक tic & Rational) वर्णन अभी भी वैज्ञानिकोंने पूरा

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