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में बसता है और गुरुकृपा से जाना जाता है ।
१९. जीव स्पर्श, रूप आदि से रहित है । शरीर से भिन्न है । सद्गुरु
ज्ञान मिलता है ।
से उनका
२०. सचेतन देव का एक समय का ध्यान भी कर्म पुवाल को जला देता है । २१. जप, तप आदि कर्मों का नाश नहीं कर सकते । एक समय का आत्मज्ञान भी चार गति से मुक्त करता है । -
२२. सहज समाधि में आत्मा को जानना । उसमें ही अहंकार का त्याग करना । २३. आत्मा ही संयम, शील, गुण, दर्शन, तप व्रत, देव और गुरु है । वही निर्वाण का पथ है ।
२४. आत्मज्ञान ही सच्चा व्यवहार है । सम्यक्त्वके बोध से रहित होना यह कण बिना पुवाल लेने जैसा है ।
२५. वह माता, पिता, कुल जाति रोष राग आदि से रहित है । वह सम्यक्त्व दृष्टि से और गुरु क कृपा से जाना जाता है ।
२६. गुरु का उपदेश है कि जो मुनि परम्ानंद सरोवर में प्रवेश करता है वह अमृत रूपी महारस पीता है
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२७. चक्रवर्ती सब देशों पर आधिपत्य स्थापित करता है । फिर जो ज्ञानबल से विजय पाता है वही शिवपूरी को जाता है ।
२८. सद्गुरु के उपदेश से परमानंद के स्वभाव का ज्ञान होता है। और फलस्वरूप परमज्योति उल्लस होता है
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२९. . .
३०. जैसे सिंह हाथी के कुंभस्थल पर प्रहार करता है वैसे ही परम समाधि साधना । ३१. जो समरस के भाव से रंगा हुआ है सो आत्मा को देखता है । जो आत्मा को जानता और उसके अनुभव करता है उसको कोई दूसरा आलंबन की आवश्यकता नही होती ।
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३२. जो पूर्व कर्मों को जलादेता है नये कर्म नहीं बांधता है, आत्मलीन होता है । वह केवलज्ञान पाता है ।