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के विषय में जो उपदेश दिया है वही आनंदतिलक ने अपने शब्दों में निबद्ध किया है । वैसे तो 'दोहापाहुड' भी इस परंपरा की पूर्ववर्ती कृतियों से संकलित किया हुआ जान पडता है।
जैसा कि ऊपर कहा गया देवेन्द्रकुमार शास्त्री ने तीन प्रतियों के आधार पर इस रचना का पाठ-संपादन किया है। रचना लोकप्रिय रही होगी, इसी कारण अनेक पाठभेद मिलते हैं-शब्दरूप, शब्द, चरण, पद्यसंस्था, पद्यक्रम यह सभी के विषय में । भवंरलाल पोल्याका ने पूरी सावधानी से सभी पाठभेद नोट किये हैं। बहुत से पाठांतर कर्ता-विभक्ति के रूप, उत्तम पुरुष के रूप, अनुस्वार, हकार इत्यादि के बारे में हैं । मूल की भाषा का उत्तरकालीन लेखकों द्वारा हुआ ऐसा परिवर्तन बहुत हस्तप्रतियों में सामान्य तौर पर देखने में आता है। हमने केवल अर्थभेद वाले कुछ महत्त्व के पाठांतर ही लक्ष्य में लिये हैं।
पाठनिर्णय तथा कृति का नाम और कर्तृत्व के विषय में और अर्थघटन के कई एक स्थानों के बारे में असंमत होने के कारण हमें कृति का फिर से संपादन • और अनुवाद किया है। इस के लिये हमें शास्त्री की सामग्री का और स्व. अगरचंद नाहटा से प्राप्त एक प्रति का उपयोग किया है । उनका हम ऋण स्वीकार करते हैं। आणंदतिलक और महाणंदी के समय और जीवन के बारे में हम कुछ भी नहीं जानते हैं । भाषा का स्वरूप उत्तरकालीन अपभ्रंश है, प्रादेशिक भाषा का प्रभाव नहिवत् है, इस कारण हम मानते हैं कि रचना तेरहवीं शताब्दी से बाद की शायद न हो । विषय पदावलि, दोहा, छंद और भाषाशैली की दृष्टि से आनंदतिलक का 'आनंद-गीत', महाचन्द्र की कृति 'बारहक्खर कक्क' और लक्ष्मीचंद्र की कृति 'अणुपेहा' से मिलती जुलती है।
१. वासुदे सिंहने इपने 'नागरी प्रचारिणी पत्रिका' (६४/१, सं. २०१६, पृ. ५६-६३) में
प्रकाशित लेख में 'आणंदा' के कर्तृत्व आदि विषय में जो बात कही है वह कृति में दिये हुए विधानों को अच्छी तरह समजे बिना कही है। उन्होंने जिस हस्तप्रति
को उपयोग में ली है, उसके सिवा अन्य प्रति में अच्छे पाठान्तर मिलते हैं । २. नाहटाजी ने एक पत्र में लिखा था । 'आणंदा की हमारे संग्रह की प्रचीनतम प्रति
की नकल मूल प्रति से मिला कर भेज रहा हूँ।'