Book Title: Akalank Granthtraya aur uske Karta
Author(s): Akalankadev
Publisher: Z_Mahendrakumar_Jain_Nyayacharya_Smruti_Granth_012005.pdf
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४ / विशिष्ट निबन्ध : १७
शान्तरक्षित और अकलंक - धर्मकीर्तिके टीकाकारोंमें शान्तरक्षित भी अत्यन्त प्रसिद्ध हैं । इन्होंने arrest टीका सिवाय तत्त्वसंग्रह नामका विशाल ग्रन्थ भी लिखा है। इसका समय सन् ७०५ से ७६२ तक माना जाता है । ( देखो तत्त्वसंग्रहकी प्रस्तावना ) अकलंक और शान्तरक्षितकी तुलना के लिए हम कुछ वाक्य नीचे देते हैं
"वृक्षे शाखा : शिलाश्चाग इत्येषा लौकिका मतिः । " - तत्त्वसं० पृ० २६७ " तानेव पश्यन् प्रत्येति शाखा वृक्षेऽपि लौकिकः । " न्यायविनि० का० १०४, प्रमाणसं ० का० २६
" अविकल्पमविभ्रान्तं तद्योगीश्वरमानसम् ।" - तत्त्वसं० पृ० ९३४ "अविकल्पकमभ्रान्तं प्रत्यक्षं न पटोयसाम् ।" - न्यायवि० का० १५५
' एवं यस्य प्रमेयत्ववस्तुसत्त्वादिलक्षणाः । निहन्तुं हेतवोऽशक्ताः को न तं कल्पयिष्यति ।। " -- तत्त्वसं० पृ० ८८५
" तदेवं प्रमेयत्वसत्त्वादिर्यत्र हेतुलक्षणं पुष्णाति तं कथं चेतनः प्रतिषेद्धुमर्हति संशयितुं वा ॥” - अष्टश० अष्टसह० पृ० ५८
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- तत्त्वसं० पृ० ८८८
इनके सिवाय शान्तरक्षितने सर्वज्ञसिद्धिमें ईक्षणिकादिविद्याका दृष्टान्त दिया यथा - " अस्ति होक्षणिकाद्याख्या विद्या यां ( या ) सुविभाविता । परचित्तपरिज्ञानं करोती हैव जन्मनि ॥ " अकलंकदेव भी ( न्यायवि० का० ४०७ ) सर्वज्ञसिद्धिमें ईक्षणिका विद्याका दृष्टान्त देते हैं । इन अवतरणोंसे अकलंक और शान्तरक्षितके बिम्बप्रतिबिम्बभावका आभास हो सकता है । अकलंकके साथ की गई प्रज्ञाकर आदिको तुलनासे यह बात निर्विवाद रूपसे सिद्ध हो जाती है कि अकलंकदेव इनके उत्तरकालीन नहीं तो लघुसमकालीन तो अवश्य ही हैं । उक्त समस्त आचार्यों को खींचकर एक किसी भी तरह नहीं रखा जा सकता । अतः भर्तृहरिके समालोचक कुमारिल, कुमारिलका निरसन करनेवाले धर्मकीर्ति, धर्मकीर्तिके टीकाकार प्रज्ञाकर गुप्त तथा प्रज्ञाकरगुप्तके वार्तिकालंकार के बाद बनी हुई कर्णकगोमिकी टीका तकका आलोचन करनेवाले अकलंक किसी भी तरह कुमारिल और धर्मकीर्तिके समकालीन नहीं हो सकते । धर्मकीर्तिके समयसे इनको अवश्य ही कमसे कम ५० वर्ष बाद रखना होगा। इन पचास वर्षों में प्रमाणवार्तिकको टीका, वार्तिकालंकारकी रचना तथा कर्णकगोमिकी स्वोपज्ञवृत्तिटीका बनी होगी, और उसने इतनी प्रसिद्धि पाई होगी कि जिससे वह अकलंक जैसे तार्किकको अपनी ओर आकृष्ट कर सके । अतः अकलंकका समय ७२० से ७८० तक मानना चाहिए । पुराने जमाने में आज जैसे प्रेस, डॉक आदि शीघ्र प्रसिद्धि के साधन नहीं थे, जिनसे कोई लेखक या ग्रन्थकार ५ वर्ष में ही दुनियाँके इस छोरसे उस छोर तक ख्याति प्राप्त कर लेता है । फिर उस समयका साम्प्रदायिक वातावरण ऐसा था जिससे काफी प्रसिद्धि या विचारोंकी मौलिकता ही प्रतिपक्षी विद्वानोंका ध्यान अपनी ओर आकृष्ट कर सकती थी, और इस प्रसिद्धि में कमसे कम १५-२० वर्षका समय तो लगना ही चाहिए । इस विवेचनाके आधारपर हम निम्न आचार्योंका समय इस प्रकार रख सकते हैं
भर्तृहरि ६०० से ६५० तक कुमारिल ६०० से ६८० तक
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प्रज्ञाकर
६७० से ७२५ तक
कर्णकगोमि ६९० से ७५० तक
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