Book Title: Akalank Granthtraya aur uske Karta
Author(s): Akalankadev
Publisher: Z_Mahendrakumar_Jain_Nyayacharya_Smruti_Granth_012005.pdf
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४ | विशिष्ट निबन्ध : २९ उत्पन्न हआ है. अतः उनके आकारको भी उसे ग्रहण करना चाहिए । ज्ञान विषयके आकारको यदि एकदेशसे ग्रहण करता है; तब तो ज्ञान सांश हो जायगा। यदि सर्वदेशसे तो ज्ञान अर्थकी तरह जड़ हो जायगा। समानकालीन पदार्थ किसी तरह आकार ज्ञान में समर्पित कर सकते हैं पर अतीत और अनागत पदार्थों के जाननेवाले स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, अनुमानादि ज्ञान कैसे उन अविद्यमान पदार्थोके आकार हो सकते हैं? हाँ, शक्तिप्रतिनियम माननेसे अतीतादि पदार्थोका ज्ञान भलीभांति हो सकता है। ज्ञानका अमुक अर्थको विषय करना ही अन्य पदार्थोंसे ब्यावृत्त होना है । अतः ज्ञानको निराकर मानना ही ठीक है । अमूर्त ज्ञानमें मूर्त अर्थका प्रतिबिम्ब भी कैसे आ सकता है ?
सौत्रान्तिकको ज्ञानके साकार होनेका 'ज्ञानमें अर्थका प्रतिबिम्ब पड़ता है।' यह अर्थ इष्ट था या नहीं यह तो विचारणीय है। पर विज्ञानवादी बौद्धोंने उसका खण्डन यही अर्थ मानकर किया है और उसीका प्रतिबिम्ब अकलंककृत खण्डनमें है।
इस तरह अकलंकने स्वार्थव्यवसायात्मक, अनधिगतार्थग्राहि, अविसंवादि ज्ञानको प्रमाण कहा है। इस लक्षणके अनधिगतार्थग्राहित्व विशेषण के सिवाय बाकी अंश सभी जैन तार्किकोंने अपनाए है। अनधिगतार्थग्राहित्वकी परम्परा माणिक्यनन्दि तक ही चली। आ० हेमचन्द्रने स्वनिर्णयको भी प्रमाणके व्यावर्तक लक्षणमें नहीं रखा; क्योंकि स्वनिर्णय तो ज्ञानसामान्यका धर्म है न कि प्रमाणात्मक विशेषज्ञानका । अकलंकदेवने जहाँ अज्ञानात्मक सन्निकर्षादिकी प्रमाणताका व्यवच्छेद प्रमितिक्रियामें अव्यवहित करण न होनेके कारण किया है, वहाँ ज्ञानात्मक संशय और विपर्ययका विसंवादी होनेसे तथा निर्विकल्पज्ञानका संव्यवहारानुपयोगी होने के कारण निरास किया है। इसी संव्यवहारानुपयोगी पदसे सुषुप्त चैतन्यके समान निर्विकल्पकदर्शन भी प्रमाणकोटिसे बहिभर्त है इसकी सूचना मिलती है।
प्रमाणके भेद-तत्त्वार्थसूत्रके 'तत्प्रमाणे' इस सूत्रको लक्ष्यमें रखकर ही अकलंकने प्रमाणके दो मल भेद किए हैं । यद्यपि उन्हें प्रत्यक्ष तथा परोक्षके कई अवान्तर भेद मानना पड़े हैं। इसीलिए उनने 'प्रमाणे इति संग्रहः' पद देकर उस भेदके आधारभत सूत्रकी सूचना दी है। वे दो भेद हैं-एक प्रत्यक्ष, दुसरा परोक्ष । तत्त्वार्थसूत्र में मति ( इन्द्रियान्द्रियप्रत्यक्ष, स्मृति, संज्ञा ( प्रत्यभिज्ञान ), चिन्ता ( तर्क ), अभिनिबोध ( अनुमान ) इन ज्ञानोंको मतिसे अनर्थान्तर अर्थात् मतिज्ञानरूप बताया है। मतिज्ञानका परोक्षत्व भी वहीं स्वीकृत है । अतः उक्तज्ञान जिनमें इन्द्रियानिन्द्रियप्रत्यक्ष भी शामिल है आगमिकपरम्परामें स्पष्टरूपसे परोक्ष है। पर लोकव्यवहार तथा दर्शनान्तरोंमें इन्द्रियानिन्द्रियज्ञान प्रत्यक्षरूपसे ही प्रसिद्ध तथा व्यवहृत होते है। यद्यपि अकलंकदेवके पहिले आ० सिद्धसेन दिवाकरने अपने न्यायावतारमें प्रत्यक्ष, अनुमान इन तीन प्रमाणोंका कथन किया है, पर प्रमाणोंकी व्यावर्तक संख्या अभी तक अनिश्चितसी ही रही है। अक
देवने सत्रकारकी परम्पराकी रक्षा करते हुए लिखा है कि-मति, स्मृति, संज्ञा, चिन्ता और अभिनिबोध ज्ञान शब्दयोजनासे पहिले मतिज्ञान तथा शब्दयोजनाके अनन्तर श्रुतज्ञान कहे जायँ । श्रुतज्ञान परोक्ष कहा जाय। मतिज्ञानमें अन्तर्भूत मति-इन्द्रियानिन्द्रियप्रत्यक्षको लोकव्यवहारमें प्रत्यक्षरूपसे प्रसिद्ध होनेके कारण तथा वैशद्यांशका सद्भाव होनेसे संव्यवहारप्रत्यक्ष कहा जाय । प्रत्यक्ष के इन्द्रियप्रत्यक्ष, अनिन्द्रियप्रत्यक्ष और अतीन्द्रियप्रत्यक्ष ये तीन मलभेद हों।
इस वक्तव्यका यह फलितार्थ हुआ कि प्रत्यक्षके दो भेद-१. सांव्यवहारिक, २. मुख्य । सांव्यवहारिक प्रत्यक्षके दो भेद-१. इन्द्रियप्रत्यक्ष, २. अनिन्द्रियप्रत्यक्ष । इन्द्रियप्रत्यक्ष-अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणादिज्ञान । अनिन्द्रियप्रत्यक्ष-शब्दयोजनासे पहिलेकी अवस्थाबाले स्मृति, संज्ञा, चिन्ता और अभिनिबोधज्ञान । इस तरह अकलंकदेवने प्रमाणके भेद किए जो निर्विवाद रूपसे उत्तरकालीन ग्रन्थकारों द्वारा माने गए ।
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