Book Title: Akalank Granthtraya aur uske Karta
Author(s): Akalankadev
Publisher: Z_Mahendrakumar_Jain_Nyayacharya_Smruti_Granth_012005.pdf

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Page 66
________________ ६६ : डॉ. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ हारनय भेद करते-करते ऋजुसूत्र नयके विषयभूत एक वर्तमान कालीन अर्थपर्याय तक पहुँचता है तब अपरसंग्रहकी मर्यादा समाप्त हो जाती है ।अपरसंग्रह और व्यवहारनयका क्षेत्र तो समान है पर दृष्टिमें भेद है । जब अपरसंग्रहमें तद्गत अभेदांशके द्वारा संग्रहकी दृष्टि है तब व्यवहारनयमें भेदकी ही प्रधानता है । परसंग्रहनयकी दृष्टिमें सद्रूपसे सभी पदार्थ एक हैं उनमें कोई भेद नहीं है। जीव, अजीव आदि सभी सद्रूपसे अभिन्न हैं । जिस प्रकार एक चित्रज्ञान अपने नीलादि अनेक आकारोंमें व्याप्त है उसी तरह सन्मात्रतत्त्व सभी पदार्थों में व्याप्त है, जीव, अजीव आदि सब उसीके भेद है। कोई भी ज्ञान सन्मात्र द्रव्यको बिना जाने भेदोंको नहीं जान सकता । कोई भी भेद सन्मात्रसे बाहिर अर्थात् असत् नहीं है । प्रत्यक्ष चाहे चेतन सुखादिमें प्रवृत्ति करे या बाह्य नीलादि अचेतन पदार्थोंमें, वह सद्रपसे अभेदांशको विषय करता ही है। संग्रहनयकी इस अभेददृष्टिसे सीधी टक्कर लेनेवाली बौद्धकी भेद दष्टि है। जिसमें अभेदको कल्पनात्मक कहकर वस्तुमें कोई स्थान ही नहीं दिया गया है। इस सर्वथा भेददृष्टिके कारण ही बौद्ध अवयवी, स्थूल, नित्य आदि अभेददृष्टिके विषयभूत पदार्थों की सत्ता ही नहीं मानते । नित्यांश कालिक-अभेदके आधारपर स्थिर है; क्योंकि जब वही एक वस्तु त्रिकालानुयायी होगी तभी वह नित्य कही जा सकती है। अवयवी तथा स्थूलांश दैशिक-अभेदके आधारसे माने जाते हैं। जब एक वस्तु अनेक अवयवोंमें कथञ्चित्तादात्म्यरूपसे व्याप्ति रखे तभी अवयवी व्यपदेश पा सकती है । स्थूलतामें भी अनेकप्रदेशव्यापित्वरूप दैशिक अभेददृष्टि ही अपेक्षणीय होती है। अकलङ्कदेव कहते हैं कि-बौद्ध सर्वथा भेदात्मक स्वलक्षणका जैसा वर्णन करते है वैसा सर्वथा क्षणिक पदार्थ न तो किसी ज्ञानका विषय ही हो सकता है और न कोई अर्थक्रिया ही कर सकता है । जिस प्रकार एक क्षणिक ज्ञान अनेक आकारोंमें युगपद् व्याप्त रहता है उसी तरह एकद्रव्यको अपनी क्रमसे होनेवाली पर्यायोंमें व्याप्त होने में क्या बाधा है ? इसी अनादिनिधन द्रव्यकी अपेक्षासे वस्तुओंमें अभेदांशकी प्रतीति होती है। क्षणिक पदार्थमें कार्य-कारणभाव सिद्ध न होनेके कारण अर्थ क्रियाकी तो बात ही नहीं करनी चाहिये । 'कारणके होनेपर कार्य होता है' यह नियम तो पदार्थको एकक्षणस्थायी माननेवालोंके मतमें स्वप्नकी ही चीज है; क्योंकि एक क्षणस्थायी पदार्थके सत्ताक्षणमें ही यदि कार्यकी सत्ता स्वीकार की जाय: तब तो कारण और कार्य एकक्षणवर्ती हो जायेंगे और इस तरह वे कार्य-कारणभावको असंभव बना देंगे । यदि कारणभूत प्रथमक्षण कार्यभत द्वितीयक्षण तक ठहरे तब तो क्षणभंगवाद कहाँ रहा? क्योंकि कारणक्षणकी सत्ता कम-सेकम दो क्षण मानना पड़ी। इस तरह कार्यकारणभावके अभावसे जब क्षणिक पदार्थ में अर्थक्रिया ही नहीं बनती तब उसकी सत्ताकी आशा करना मृगतृष्णा जैसी ही है। और जब वह सत् ही सिद्ध नहीं होता तब प्रमाणका विषय कैसे माना जाय ? जिस तरह बौद्धमतमें कारण अपने देश में रहकर भो भिन्नदेशवर्ती कार्यको व्यवस्थित रूपसे उत्पन्न कर सकता है उसी तरह जब अभिन्न नित्य पदार्थ भी अपने समयमें रहकर कार्यको कार्यकालमें ही उत्पन्न कर सकता है, तब अभेदको असत क्यों माना जाय? जिस तरह चित्रज्ञान अपने आकारोंमें, गुणी गुणोंमें तथा अवयवी अपने अवयवोंमें व्याप्त रहता है उसी तरह द्रव्य अपनी क्रमिक पर्यायोंको भी व्याप्त कर सकता है । द्रव्यदृष्टिसे पर्यायोंमें कोई भेद नहीं है। इसी तरह सन्मात्रकी दृष्टिसे समस्त पदार्थ अभिन्न हैं। इस तरह अभेददृष्टिसे पदार्थोका संग्रह करनेवाला संग्रहनय है। इस नयकी दृष्टिसे कह सकते हैं कि-विश्व एक है, अद्वैत है; क्योंकि सन्मात्रतत्त्व सर्वत्र व्याप्त है। यह ध्यान रहे कि-इस नयमें शुद्ध सन्मात्र विषय होनेपर भी भेदका निराकरण नहीं है, भेद गौण अवश्य हो जाता है। यद्यपि अद्वयब्रह्मवाद भी सन्मात्रतत्त्वको विषय करता है पर वह भेदका निराकरण करनेके कारण संग्रहाभास है। नय सापेक्ष-प्रतिपक्षी धर्मकी अपेक्षा रखनेवाला, तथा दुर्नय निरपेक्ष-परपक्षका निराकरण करनेवाला होता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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