Book Title: Akalank Granthtraya aur uske Karta
Author(s): Akalankadev
Publisher: Z_Mahendrakumar_Jain_Nyayacharya_Smruti_Granth_012005.pdf
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४ / विशिष्ट निबन्ध : ४३
असदुपायों से भी किया जा सकता है। जैसे खेतकी रक्षाके लिए काटोंकी बारी लगाई जाती है उसी तरह तत्त्वसरक्षणके लिए काँटेके समान छलादिके प्रयोगका अवलम्बन अमुक अवस्थामें ठीक है । आ० धर्मकीर्तिने अपने वादन्यायमें छलादिके प्रयोगको बिलकुल अन्याय्य बताया है । उसी तरह अकलंकदेव अहिंसाको दृष्टिसे किसी भी हालत में छलादि रूप असदुत्तरके प्रयोगको उचित नहीं समझते । छलादिको अन्याय्य मान लेनेसे जल्प और वाद में कोई भेद ही नहीं रह जाता । अतः वे वादको ही एकमात्र कथा रूपसे स्वीकार करते हैं । उनने वादका संक्षेपमें 'समर्थवचनको वाद कहते हैं' यह लक्षण करके कहा है कि वादि-प्रतिवादियोंका मध्यस्थों के सामने स्वपक्षसाधन- परपक्षदूषणवचनको वाद कहना चाहिए । इस तरह वाद और जल्पको एक मान लेनेपर वे यथेच्छ कहीं वाद शब्दका प्रयोग करते हैं तो कहीं जल्पका । वितण्डाको जिसमें वादी अपना पक्षस्थापन नहीं करके मात्र प्रतिवादीके पक्षका खण्डन ही खण्डन करता है, वादाभास कहकर त्याज्य बताया है ।
जय-पराजयव्यवस्था - नैयायिकने इसके लिए प्रतिज्ञाहानि आदि २२ निग्रहस्थान माने हैं जिनमें ATT है कि यदि कोई वादी अपनी प्रतिज्ञाकी हानि कर दे, दूसरा हेतु बोल दे, असम्बद्ध पद-वाक्य या वर्ण बोले, इस तरह बोले जिससे तीन बार कहनेपर भी प्रतिवादी और परिषद न समझ पावे, हेतुदृष्टान्तादिका क्रम भंग हो जाय, अवयव न्यून कहे जायें, अधिक अवश्य कहे जायँ, पुनरुक्त हो, प्रतिवादी वादोके द्वारा कहे गए पक्षका अनुवाद न कर सके, उत्तर न दे सके, वादीके द्वारा दिए गए दूषणको अर्धस्वीकारकर खण्डन करे, निग्रहाके लिए निग्रहस्थान उद्भावन न कर सके, अनिग्रहाहंको निग्रहस्थान बता देवे, सिद्धान्तविरुद्ध बोल जावे, हेत्वाभासों का प्रयोग करे तो निग्रहस्थान अर्थात् पराजय होगा । सामान्यसे नैयायिकोंने विप्रत्ति - पति और अप्रतिपत्तिको निग्रहस्थान माना है । विप्रतिपत्ति - विरुद्ध या असम्बद्ध कहना । अप्रतिपत्तिपक्षस्थापन नहीं करना, स्थापितका प्रतिषेध नहीं करना तथा प्रतिषिद्धका उद्धार नहीं करना । प्रतिज्ञाहान्यादि २२ तो इन्हीं दोनोंके ही विशेष प्रकार हैं ।
धर्मकीर्तिने इनका खण्डन करते हुए लिखा है कि - जय-पराजयव्यवस्थाको इस तरह गुटालेमें नहीं रखा जा सकता । किसी भी सच्चे साधनवादीका मात्र इसलिए निग्रह होना कि वह कुछ अधिक बोल गया या अमुक कायदेका पालन नहीं कर सका, सत्य और अहिंसाको दृष्टिसे उचित नहीं है । अतः वादी और प्रतिवादी के लिए क्रमशः असाधनाङ्गवचन और अदोषोद्भावन, ये दो ही निग्रहस्थान मानना चाहिये । वादीका कर्त्तव्य है कि वह सच्चा और पूर्ण साधन बोले । प्रतिवादीका कार्य है कि वह यथार्थ दोषोंका उद्भावन करे । यदि वादी सच्चा साधन नहीं बोलता या जो साधनके अंग नहीं हैं ऐसे वचन कहता है तो उसका असाधनांगवचन होनेसे पराजय होना चाहिये । प्रतिवादी यदि यथार्थ दोषांका उद्भावन न कर सके या जो दोष नहीं हैं उनका उद्भावन करे तो उसका पराजय होना चाहिए। इस तरह सामान्यलक्षण करनेपर भी धर्मकीर्ति फिर उसी घपले में पड़ गए । उन्होंने असाधनाङ्गवचन तथा अदोषोद्भावनके विविध व्याख्यान करके कहा है कि अन्वय या व्यतिरेक दृष्टान्तमेंसे केवल एक दृष्टान्तसे हो जब साध्यको सिद्धि संभव है तो दोनों दृष्टान्तोंका प्रयोग करना असाधनाङ्गवचन होगा । त्रिरूपवचन ही साधनाङ्ग है, उसका कथन न करना असाधनाङ्ग है । प्रतिज्ञा निगमनादि साधनके अंग नहीं है, उनका कथन असाधनाङ्ग है । यह सब लिखकर अन्तमें उनने यह भी सूचन किया है कि - स्वपक्षसिद्धि और परपक्ष निराकरण जयलाभके लिए आवश्यक है ।
अकलंकदेव असाधनाङ्गवचन तथा अदोषोद्भावन के झगड़ेको भी पसन्द नही करते । किसको साधनाङ्ग माना जाय किसको नहीं, किसको दोष माना जाय किसको नहीं, यह निर्णय स्वयं एक शास्त्रार्थका विषय हो
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