Book Title: Akalank Granthtraya aur uske Karta
Author(s): Akalankadev
Publisher: Z_Mahendrakumar_Jain_Nyayacharya_Smruti_Granth_012005.pdf
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४ / विशिष्ट निबन्ध : ६१ दोष दिखाकर अनेकान्तकी सिद्धि की जाय, फिर भी उसका सूक्ष्म पर्यवेक्षण हमें इस नतीजेपर पहुँचाता है। कि भगवान् महावीरकी वह मानस अहिंसा ठीक शत-प्रतिशत उसी रूप में तो नहीं ही रही ।
विचार विकासकी चरमरेखा - भारतीय दर्शनशास्त्रोंमें अनेकान्तदृष्टि के आधारसे वस्तुके स्वरूपके प्ररूपक जैनदर्शनको हम विचारविकासकी चरमरेखा कह सकते हैं । चरमरेखासे मेरा तात्पर्य यह है किदो विरुद्ध वादोंमें तब तक शुष्क तर्कजन्य कल्पनाओंका विस्तार होता जायगा जब तक कि उनका कोई वस्तुस्पर्शी हल - समाधान न हो जाय । जब अनेकान्तदृष्टि उनमें सामञ्जस्य स्थापित कर देगी तब झगड़ा किस और शुष्क तर्कजाल किसलिए ? तात्पर्य यह है कि जब तक वस्तुस्थिति स्पष्ट नहीं होती तब तक विवाद बातका बराबर बढ़ता ही जाता है । जब वह वस्तु अनेकान्तदृष्टिसे अत्यन्त स्पष्ट हो जायगी तब वादों का स्रोत अपने आप सूख जायगा ।
स्वतः सिद्ध न्यायाधीश – इसलिए हम अनेकान्तदृष्टिको न्यायाधीशके पदपर अनायास ही बैठा सकते हैं । यह दृष्टि न्यायाधीशकी तरह उभयपक्षको समुचित रूपसे समझकर भी अपक्षपातिनी है । यह मौजूदा यावत् विरोधी वादरूपी मुद्दई मुद्दाहलोंका फैसला करनेवाली है । यह हो सकता है कि कदाचित् इस दृष्टि उचित उपयोग न होनेसे किसी फैसलेमें अपीलको अवसर मिल सके । पर इसके समुचित उपयोगसे होनेवाले फैसलेमें अपीलकी कोई गुंजाइश नहीं रहती । उदाहरणार्थ - देवदत्त और यज्ञदत्त मामा- फुआके भाई हैं । रामचन्द्र देवदत्तका पिता है तथा यज्ञदत्तका मामा । यज्ञदत्त और देवदत्त दोनों ही बड़े बुद्धिशाली लड़के हैं । देवदत्त जब रामचन्द्रको पिता कहता है तब यज्ञदत्त देवदत्तसे लड़ता है और कहता है किरामचन्द्र तो मामा है तू उसे पिता क्यों कहता है ? इसी तरह देवदत्त भी यज्ञदत्त से कहता है कि वाह ! रामचन्द्र तो पिता है उसे मामा नहीं कह सकते । दोनों शास्त्रार्थं करने बैठ जाते हैं । यज्ञदत्त कहता है किदेखो, रामचन्द्र मामा हैं, क्योंकि वे हमारी माँके भाई हैं, हमारे बड़े भाई भी उसे मामा ही तो कहते हैं आदि । देवदत्त कहता है - वाह ! रामचन्द्र तो पिता है, क्योंकि उसके भाई हमारे चाचा होते हैं, हमारी माँ उसे स्वामी कहती है आदि । इतना ही नहीं, दोनोंमें इसके फलस्वरूप हाथापाई हो जाती है। एक दूसरेका कट्टर शत्रु बन जाता है । अनेकान्तदृष्टिवाला रामचन्द्र पासके कमरेसे अपने होनहार लड़कोंकी कल्पनाशक्ति एवं face प्रसन्न होकर भी उसके फलस्वरूप होनेवाली हिंसा मारपीटसे खिन्न हो जाता है । वह उन दोनोंकी गलती समझ जाता है और उन्हें बुलाकर धीरेसे समझाता है - बेटा देवदत्त, यह ठीक है कि मैं तुम्हारा पिता हूँ, पर केवल तुम्हारा पिता ही तो नहीं हूँ, इसका मामा भी तो हूँ । इसी तरह यज्ञदत्त को समझाता है कि- बेटा यज्ञदत्त, तुम भी ठीक कहते हो, मैं तुम्हारा तो मामा ही हूँ, पर यज्ञदत्तका पिता भी तो हूँ । यह सुनते ही दोनों भाइयोंकी दृष्टि खुल जाती है । वे झगड़ना छोड़कर आपस में बड़े हेलमेलसे रहने लगते हैं । इस तरह हम समझ सकते हैं कि - एक-एक धर्म के समर्थन में वस्त्वंशको लेकर गढ़ी गई दलीलें तब तक बराबर चालू रहेंगी और एक-दूसरेका खंडन ही नहीं किन्तु उससे होनेवाले रागद्वेष -- हिंसाकी परम्परा बराबर चलेगी जब तक कि अनेकान्तदृष्टि उनकी चरमरेखा बनाकर समन्वय न कर देगी । इसके बाद तो मस्तिष्क के व्यायामस्वरूप दलीलोंका दलदल अपने आप सूख जायगा ।
प्रत्येक पक्षके वकीलों द्वारा अपने पक्षसमर्थन के लिए सङ्कलित दलीलोंकी फाइलकी तरह न्यायाtant फैसला भले ही आकार में बड़ा न हो; पर उसमें वस्तुस्पर्श, व्यावहारिकता एवं सूक्ष्मता के साथ ही साथ निष्पक्षपातिता अवश्य ही रहती है । उसी तरह एकान्त के समर्थन में प्रयुक्त दलीलोंके भण्डारभूत एकान्तवादी दर्शनोंकी तरह जैनदर्शनमें कल्पनाओंका चरम विकास न हो और न उसका परिमाण ही
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