Book Title: Akalank Granthtraya aur uske Karta
Author(s): Akalankadev
Publisher: Z_Mahendrakumar_Jain_Nyayacharya_Smruti_Granth_012005.pdf
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४२ : डॉ. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ साध्यका यह लक्षण निर्विवादरूपसे माणिक्यनन्दि आदि आचार्यों द्वारा स्वीकृत है। सिद्ध, अनिष्ट तथा बाधितको साध्याभास कहा है ।
दृष्टान्त-जहाँ साध्य और साधनके सम्बन्धका ज्ञान होता है उस प्रदेशका नाम दृष्टान्त है । साध्यविकल तथा साधनविकलादिक दृष्टान्ताभास हैं। इस तरह दृष्टान्त और दृष्टान्ताभासका लक्षण करनेपर भी अकलंकदेवने दृष्टान्तको अनुमानका अवयव स्वीकार नहीं किया। उनने लिखा है कि सभी अनुमानोंमें दृष्टान्त होना ही चाहिये, ऐसा नियम नहीं है, दृष्टान्तके बिना भी साध्यकी सिद्धि देखी जाती है, जैसे बौद्धके मतसे समस्त पदार्थोंको क्षणिकत्व सिद्ध करने में सत्त्व हेतुके प्रयोगमें कोई दृष्टान्त नहीं है । अतः दृष्टान्त अनुमानका नियत अवयव नहीं है । इसीलिये उत्तरकालीन कुमारनन्दि आदि आचार्योंने प्रतिज्ञा और हेतु इन दोको ही अनुमानका अवयव माना है । हाँ, मन्दबुद्धि शिष्योंकी दृष्टिसे दृष्टान्त, उपनय तथा निगमनादि भी उपयोगी हो सकते हैं।
धर्मी-बौद्ध अनुमानका विषय कल्पित सामान्य मानते हैं, क्षणिक स्वलक्षण नहों। आ० दिग्नागने कहा है कि-समस्त अनुमान-अनुमेयव्यवहार बुद्धिकल्पित धर्ममिन्यायसे चलता है, किसी धर्मीकी वास्तविक सत्ता नहीं है । अकलंकदेव कहते हैं कि जिस तरह प्रत्यक्ष परपदार्थ तथा स्वरूपको विषय करता है उसी तरह अनुमान भी वस्तुभूत अर्थको ही विषय करता है। हाँ, यह हो सकता है कि प्रत्यक्ष उस वस्तुको स्फुट तथा विशेषाकार रूपसे ग्रहण करे और अनुमान उसे अस्फुट एवं सामान्याकार रूपसे । पर इतने मात्रसे एक वस्तुविषयक और दूसरा अवस्तुको विषय करनेवाला नहीं कहा जा सकता । जिस विकल्पज्ञानसे आप धर्मधर्मभावकी कल्पना करते हैं, वह विकल्पज्ञान निर्विकल्पकसे तो सिद्ध नहीं हो सकता; क्योंकि निर्विकल्पकनिश्चय-शून्यज्ञानसे किसी वस्तुकी सिद्धि नहीं हो सकती । विकल्पान्तरसे सिद्धि मानने में अनवस्था दूषण आता है। अतः विकल्पको स्व और अर्थ दोनों ही अंशोंमें प्रमाण मानना चाहिए। जब विकल्प अर्थाशमें प्रमाण हो जायगा; तब ही उसके द्वारा विषय किए गए धर्मी आदि भी सत्य एवं परमार्थ सिद्ध होंगे। यदि धर्मी ही मिथ्या है; तब तो उसमें रहनेवाले साध्य-साधन भी मिथ्या एवं कल्पित ठहरेंगे। इस तरह परम्परासे भी अनुमानके द्वारा अर्थकी प्राप्ति नहीं हो सकेगी। अतः धर्मीको प्रमाणसिद्ध मानना चाहिए केवल विकल्पसिद्ध नहीं । अकलंकोत्तरवर्ती आ० माणिक्यनन्दिने इसी आशयसे परीक्षामखसूत्रमें धर्मीके तीन भेद किए हैं१. प्रमाणसिद्ध, २. विकल्पसिद्ध , ३. उभयसिद्ध ।
अनुमानके भेद-न्यायसूत्रमें अनुमानके तीन भेद किए है-पूर्ववत्, शेषवत् और सामान्यतोदष्ट । सांख्यतत्त्वकौमुदीमें अनुमानके दो भेद पाये जाते हैं-एक वीत और दूसरा अवीत । वीत अनुमान के दो भेद१. पूर्ववत्, २. सामान्यतोदृष्ट । सांख्यके इन भेदोंकी परम्परा वस्तुतः प्राचीन है। वैशेषिकने अनुमानके कार्यलिंगज, कारणलिंगज, संयोगिलिंगज और समवायिलिंगज, इस तरह पाँच भेद किए हैं। अकलंकदेव तो सामान्यरूपसे एक ही अन्यथानुपपत्ति लिंगज अनुमान मानते हैं। वे इन अपूर्ण भेदोंकी परिगणनाको महत्त्व नहीं देते।
वाद-नैयायिक कथाके तीन भेद मानते हैं-१. वाद, २. जल्प, ३. वितण्डा। वीतरागकथाका नाम वाद है तथा विजिगीषुकथाका नाम जल्प और वितण्डा है । पक्ष-प्रतिपक्ष तो दोनों कथाओं में ग्रहण किए हो जाते हैं। हाँ, इतना अन्तर है कि-बादमें स्वपक्षसाधन और परपक्षदुषण प्रमाण और तर्कके द्वारा होते हैं, जब कि जल्प और वितण्डामें छल, जाति और निग्रहस्थान जैसे असदुत्तरोंसे भी किए जा सकते हैं। नयायिकने छलादिके प्रयोगको असदुत्तर माना है और साधारण अवस्थामें उनके प्रयोगका निषेध भी किया है। वादका प्रयोजन तत्त्वनिर्णय है। जल्प और वितण्डाका प्रयोजन है-तत्त्वसंरक्षण, जो छलजातिरूप
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