Book Title: Akalank Granthtraya aur uske Karta
Author(s): Akalankadev
Publisher: Z_Mahendrakumar_Jain_Nyayacharya_Smruti_Granth_012005.pdf

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Page 20
________________ २० : डॉ. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ उदाहरण नयप्रवेशकप्रकरणसे जानना चाहिए। यहाँ नयप्रवेशको स्वतंत्र प्रकरणरूपमें उल्लेख करनेसे अनुमान किया जा सकता है कि अनन्तवीर्यकी दृष्टिमें प्रमाणप्रवेश और नयप्रवेश दो प्रकरण थे। और यह बहुत कुछ सम्भव है कि उनने हो प्रवचनप्रवेशको मिलाकर इनकी 'लघीयस्त्रय' संज्ञा दी हो। उस समय प्रवेशक और लघु ग्रंथोंको प्रकरण शब्दसे कहनेकी परम्परा थी। जैसे न्यायप्रवेशप्रकरण, न्यायविन्दुप्रकरण आदि । अनन्तवीर्यके इस लघीयस्त्रय संज्ञाकरणके बाद तो इनकी प्रमाणनयप्रवेश तथा प्रवचनप्रवेश संज्ञा लघीयस्त्रयके तीन प्रवेशोंके रूपमें ही रही ग्रन्थके नामके रूप में नहीं। ___ अस्तु, लघीयस्त्रय नामका इतिहास जान लेने के बाद अब हम इसका एक अखण्ड ग्रन्थके रूपमें ही वर्णन करेंगे; क्योंकि आज तक निर्विवाद रूपसे यह एक ही ग्रन्थके रूप में स्वीकृत चला आ रहा है । इस ग्रन्थमें तीन प्रवेश है-१. प्रमाण प्रवेश, २. नय प्रवेश, ३. निक्षेप प्रवेश । प्रमाण प्रवेशके चार परिच्छेद हैं१. प्रत्यक्ष परिच्छेद, २. विषय परिच्छेद, ३. परोक्ष परिच्छेद, ४. आगम परिच्छेद । इन चार परिच्छेदोंके साथ नयप्रवेश तथा प्रवचन प्रवेशको मिलाकर कुल ६ परिच्छेद स्वोपज्ञविवतिकी प्रतिमें पाए जाते हैं । लघीयस्त्रयके व्याख्याकार आ० प्रभाचन्द्रने प्रवचनप्रवेशके भी दो परिच्छेद करके कुल सात परिच्छेदोंपर अपनी न्यायकुमदचन्द्र व्याख्या लिखो है। प्रवचनप्रवेशमें जहाँ तक प्रमाण और नयका वर्णन है वहाँ तक प्रभाचन्द्रने छठवां परिच्छेद, तथा निक्षेपके वर्णनको स्वतन्त्र सातवाँ परिच्छेद माना है। लघीयस्त्रयमें कूल ७८ कारिकाएँ है। मुद्रित लघीयस्त्रयमें ७७ ही कारिकाएँ है। उसमें 'लक्षणं क्षणिकैकान्ते' ( का० ३५ ) कारिका नहीं है । नयप्रवेशके अन्तमें 'मोहेनैव परोऽपि' इत्यादि पद्य भी विवृतिकी प्रतिमें लिखा हुआ मिलता है । पर इस पद्यका प्रभाचन्द्र तथा अभयनन्दिने व्याख्यान नहीं किया है, तथा उसकी मलग्रन्थके साथ कोई संगति भी प्रतीत नहीं होती, अतः इसे प्रक्षिप्त समझना चाहिए। प्रथम परि० में ६॥, द्वि० परि०में ३, त० परि०में १२, चतु० परि० में ७, पंचम परि०में २१, तथा ६ प्रवचन प्र० में २८, इस तरह कुल ७८ कारिकाएँ हैं। मल लघीयस्त्रयके साथ ही स्वयं अकलंकदेवकी संक्षिप्त विवृति भी इसी संस्करणमें मुद्रित है। यह विवति कारिकाओंका व्याख्यानरूप न होकर उसमें सूचित विषयोंको पूरक है। अकलंकदेवने इसे मूल श्लोकोंके साथ हो साथ लिखा है। मालूम होता है कि-अकलंकदेव जिस पदार्थको कहना चाहते हैं, वे उसके अमक अंशकी कारिका बनाकर बाकीको गद्य भागमें लिखते हैं। अतः विषयकी दृष्टिसे गद्य और पद्य दोनों मिलकर हो ग्रन्थकी अखंडता स्थिर रखते हैं। धर्मकीर्तिकी प्रमाणवातिककी वृत्ति भी कुछ इसी प्रकारकी है। उसमें भी कारिकोक्त पदार्थकी पूर्ति तथा स्पष्टताके लिए बहुत कुछ लिखा गया है। अकलंकके प्रमाणसंग्रहका अध्ययन करनेसे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि-अकलंकके गद्यभागको हम शद्ध वृत्ति नहीं कह सकते, क्योंकि शुद्ध वृत्तिमें मात्र मूलकारिकाका व्याख्यान होना ही आवश्यक है, पर लघोयस्त्रयकी विवृति या प्रमाणसंग्रहके गद्यभागमें व्याख्यानात्मक अंश नहींके हो बराबर हैं। हाँ, कारिकोक्त पदोंको आधार बनाकर उस विषयका शेष वक्तव्य गद्यरूप में उपस्थित कर दिया है। व्याख्याकार प्रभाचन्द्रने इसको विवति माना है और वे कारिकाका व्याख्यान करके जब गद्य भागका व्याख्यान करते हैं तब 'विवृति विवृण्वन्ताह' लिखते हैं । विवृति शब्दका प्रयोग हमारे विचारसे खालिस टीका या वृत्तिके अर्थ में न होकर तत्सम्बद्ध शेष वक्तव्यके अर्थमें है। लघीयस्त्रयमें चचित विषय संक्षेपमें इस प्रकार हैप्रथमपरिच्छेदमें-सम्यग्ज्ञानकी प्रमाणता, प्रत्यक्ष परोक्षका लक्षण, प्रत्यक्षके सांव्यवहारिक और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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