Book Title: Akalank Granthtraya aur uske Karta
Author(s): Akalankadev
Publisher: Z_Mahendrakumar_Jain_Nyayacharya_Smruti_Granth_012005.pdf

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Page 21
________________ ४ / विशिष्ट निबन्ध : २१ मुख्य रूप से दो भेद, सांव्यवहारिकके इन्द्रियानिन्द्रियप्रत्यक्ष रूपसे भेद, मुख्यप्रत्यक्ष का समर्थन, सांव्यवहारिकके अवग्रहादिरूपसे भेद तथा उनके लक्षण, अवग्रहादिके बह्वादिरूप भेद, भावेन्द्रिय द्रव्येन्द्रियके लक्षण, पूर्व पूर्वंज्ञानकी प्रमाणतामें उत्तरोत्तर ज्ञानोंकी फलरूपता आदि विषयोंकी चरचा है । द्वितीयपरिच्छेद में- - द्रव्यपर्यायात्मक वस्तुका प्रमाणविषयत्व तथा अर्थक्रियाकारित्व, नित्यैकान्त तथा क्षणिकैकान्त में क्रमयौगपद्यरूपसे अर्थक्रियाकारित्वका अभाव, नित्य माननेपर विक्रिया तथा अविक्रियाका अविरोध आदि प्रमाणके विषयसे सम्बन्ध रखनेवाले विचार प्रकट किए हैं। तृतीयपरिच्छेद में - मति, स्मृति, संज्ञा, चिन्ता, तथा अभिनिबोधका शब्दयोजना से पूर्व अवस्थामें मतिव्यपदेश तथा उत्तर अवस्था में श्रुतव्यपदेश, व्याप्तिका ग्रहण प्रत्यक्ष और अनुमानके द्वारा असंभव होनेसे व्याप्तिग्राही तर्कका प्रामाण्य, अनुमानका लक्षण, जलचन्द्रके दृष्टान्तसे कारण हेतुका समर्थन, कृतिकोदय आदि पूर्वच हेतुका समर्थन, अदृश्यानुपलब्धिसे भी परचैतन्य आदिका अभावज्ञान, नैयायिकाभिमत उपमानका सादृश्यप्रत्यभिज्ञानमें अन्तर्भाव, प्रत्यभिज्ञानके वैसदृश्य आपेक्षिक प्रतियोगि आदि भेदोंका निरूपण, बौद्ध मतमें स्वभावादि हेतुओंके प्रयोग में कठिनता, अनुमानानुमेयव्यवहारकी वास्तविकता एवं विकल्पबुद्धि की प्रमाणता आदि परोक्षज्ञानसे सम्बन्ध रखनेवाले विषयोंकी चरचा है । चतुर्थपरिच्छेद में - किसी भी ज्ञानमें ऐकान्तिक प्रमाणता या अप्रमाणताका निषेध करके प्रमाणाभासका स्वरूप, सविकल्पज्ञानमें प्रत्यक्षाभासताका अभाव, अविसंवाद और विसंवादसे प्रमाण- प्रमाणाभासव्यवस्था, विप्रकृष्टविषयों में श्रुतकी प्रमाणता, हेतुवाद और आप्तोक्तरूपसे द्विविध श्रुतकी अविसंवादि होनेसे प्रमाणता, शब्दोंके विवक्षावाचित्वका खण्डनकर उनकी अर्थवाचकता आदि श्रुत सम्बन्धी बातोंका विवेचन किया गया है । इस तरह प्रमाणके स्वरूप, संख्या, विषय और फलका निरूपणकर प्रमाणप्रवेश समाप्त होता है। पंचम परिच्छेद में नय दुर्नयके लक्षण, द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक रूपसे मूलभेद, सत्रूपसे समस्त वस्तुओंके ग्रहणका संग्रहनयत्व, ब्राह्मवादका संग्रहाभासत्व, बौद्धाभिमत एकान्तक्ष णिकताका निरास, गुणगुणी, धर्म-धर्मीको गौण मुख्य विवक्षामें नैगमनयकी प्रवृत्ति, वैशेषिकसम्मत गुणगुण्यादिके एकान्त भेदका नैगमाभासत्व, प्रामाणिक भेदका व्यवहारनयत्व, काल्पनिक भेदका व्यवहाराभासत्व, कालकारकादिके भेदसे अर्थ - भेद निरूपणकी शब्दनयता पर्यायभेदसे अर्थभेदक कथनका समभिरूढनयत्व, क्रियाभेदसे अर्थभेद प्ररूपणका एवंभूतनयत्व, सामग्रीभेदसे अभिन्नवस्तुमें भी षट्कारकीका संभव आदि समस्त नयपरिवारका विवेचन है । यहाँ नयप्रवेश समाप्त हो जाता है । ६. प्रवचन प्रवेश में — प्रमाण, नय और निक्षेपके कथनकी प्रतिज्ञा, अर्थ और आलोककी ज्ञानकारणताका खंडन, अन्धकारको ज्ञानका विषय होनेसे आवरणरूपताका अभाव, तज्जन्म, ताप्य और तदध्यवसायका प्रामाण्यमें अप्रयोजकत्व, श्रुतके सकलादेश विकलादेश रूपसे दो उपयोग, 'स्यादस्त्येव जीवः ' इस वाक्यकी विकलादेशता, 'स्याज्जीव एव' इस वाक्यकी सकलादेशता, शब्दकी विवक्षासे भिन्न वास्तविक अर्थी वाचकता, नैगमादि सात नयोंमेंसे आदिके नगमादि चार नयोंका अर्थनयत्व, शब्दादि तीन नयोंका शब्दनयत्व, नामादि चार निक्षेपोंके लक्षण, अप्रस्तुत निराकरण तथा प्रस्तुत अर्थका निरूपण रूप निक्षेपका फल, इत्यादि प्रवचनके अधिगमोपायभूत प्रमाण, नय और निक्षेपका निरूपण किया गया है । न्यायविनिश्चय-- धर्मकीर्तिका एक प्रमाणविनिश्चय ग्रन्थ प्रसिद्ध है । इसकी रचना गद्यपद्यमय है । न्यायविनिश्चय नाम स्पष्टतया इसी प्रमाणविनिश्चय नामका अनुकरण है । नामकी पसन्दगी में आन्तरिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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