Book Title: Ahimsa Darshan Ek Anuchintan
Author(s): Anekant Jain
Publisher: Lal Bahaddur Shastri Rashtriya Sanskrit Vidyapitham

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Page 4
________________ प्रकाशकीय जीव मात्र की जिजीविषा और मानव की दया-भावना से आविर्भूत अहिंसा की धारा प्राचीनकाल से आज तक कालक्रम के विभिन्न आरोहों और अवरोहों में भी सतत प्रवाहित हो रही है । इतिहास के राजमार्ग पर लाकर इसके निमेषोन्मेष का जब हम चिन्तन करते हैं तो इसकी दार्शनिक जटिलता शिथिल होती है और इसका सहज-स्वाभाविक रूप हमारे सामने आता है। ब्राह्मण-श्रमण परम्पराओं में इसकी समान मान्यता है, जिसके परिणामस्वरूप सम्पूर्ण भारतीय जीवनशैली अहिंसा पर आधारित है । अहिंसा भारतीय संस्कृति की आत्मा है । प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव से लेकर चौबीसवें तथा अन्तिम तीर्थंकर भगवान् महावीर के जीवन तथा सिद्धान्तों में हमें अहिंसा के मधुर स्वर सुनायी देते हैं । बाद की आचार्य परम्परा ने भी अहिंसक संस्कृति को अक्षुण्ण बनाये रखने में अप्रतिम योगदान दिया । श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान् का उद्घोष है कि - आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन। सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः ॥ 6/32 अर्थात् सुख-दु:ख में समता का भाव रखने वाला ही परम योगी है। आचार्य अमितगति ने श्रावकाचार में स्पष्ट लिखा है - आत्मवधो जीववधस्तस्य च रक्षाऽत्मनो भवति रक्षा। आत्मा न हि हन्तव्यस्तस्य वधस्तेन मोक्तव्यः। 6/30 अर्थात् किसी भी जीव का वध करना आत्मवध है और अन्य जीव की रक्षा करना आत्मरक्षा है । इसलिये आत्मवध नहीं करना चाहिए और अन्य जीव का घात करना छोड़ देना चाहिए । (v)

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