Book Title: Agnatkartuk Arhatpravachan Sutra Savivaran
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: ZZ_Anusandhan

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Page 2
________________ (८९) धर्मानुभावना: ' एवो प्रयोग (१-८) थयो छे, तो 'रत्नप्रभा' आदी ७ नरक पृथ्वीओने " धर्मभूमि " तरीके (३-९) वर्णवी छे. ५. सिद्धान्तमां दशविध प्रायश्चित्त प्रसिद्ध छे, ज्यारे अहीं प्रायश्चित्त १२ प्रकारनां गणाव्यां छे, ते पण जुदी रीते, अने तेमां दशविध प्रायश्चित्तोनो पूर्णत: समावेश तो नथी ज थतो (२/१५) ६. नव तत्त्वनुं प्रतिपादन ७ तथा ९ एम बे भेदे परंपरामां मळे छे, अहीं तेने जुदां जुदां पाडीने जीवादि ९ पदार्थो (२ / १ ) अने जीवादि ७ तत्त्वो (२/२) एम वर्णव्यां छे. ७. चार प्रकारनां ध्याननी व्याख्याओ परंपरा करतां जुदी पडे छे. ते वर्णवतां पद्य पण ध्यानपात्र छे (२/१९) ७. कल्पस्थितिक- वैमानिक प्रकारो माटेनी मान्य संख्याथी जुदा पडीने तेना १६ प्रकारो / नामो अहीं वर्णव्यां छे; ( ४/५ ) तो नव ग्रैवेयको तथा अनुत्तर- एम मळीने कल्पातीत देवो (अहमिन्द्रो ) ना १० भेद बताव्या छे; पाछा पांच अनुत्तरो जुदां तो खरां ज ( ४/६ ) ८. नव 'अनुदिश' प्रकारना देवो पण जणाव्या छे (४/५) जेने माटे तत्त्वार्थसूत्रमां कोई निर्देश जणातो नथी; नव लोकन्तिको ते आ होई शके ? ९. द्विविध शील (४/१४), बे भेदनी निर्जरा (५/६) द्विविध संयम (१/८ ), देश अने सर्वबे जातनो मोक्ष (५/११) त्रण प्रकारे सिद्ध (५/१५) बार सिद्धानुयोगद्वारो (५/१६ ) - आ बधां अपूर्व वर्गीकरणो छे. १०. पुलाकादि पांच भेदे निर्ग्रन्थोनुं स्वरूप मान्य सैद्धान्तिक परंपराने तद्दन चातरनारुं अपूर्व जणाय छे (५/१४). आ पांच निर्ग्रन्थ-स्वरूप-वर्णनमां ज' प्रथमानुयोग' नो उल्लेख पण छे, जे नोंधपात्र छे. ११. त्रण अज्ञानोमां त्रीजुं. 'विभंगज्ञान' तरीकेज परंपरामा प्रसिद्ध छे, अहीं ( २/१०) तेने विभङ्गाज्ञान- नामे वर्णव्युं छे. ए ज रीते, १४ पूर्वमां अग्यारमुं पूर्व नन्दिसूत्रादिमां 'अवन्ध्य' पूर्व तरीके गणाव्युं छे, ज्यारे अहीं (२/ १३) तेने 'कल्याण' एवा नामे ओळखायेल छे. १२. केटलांक नामो पण ध्यान देवा जोग छे. त्रिपिष्ठ (त्रिपृष्ठ), द्विपिष्ठ (द्विपृष्ठ), अरु( अर; तीर्थंकर), रामण (रावण), प्रढाल (पेढाल), जरासिन्धु ( जरासन्ध), प्रागम्य (प्राकाम्य ) इत्यादि. कदाच एकंदरे कृतिने तपासतां कहेवुं जोईए के परंपराथी न्यारुं आमां घणुं छे. तेथी ज तेनो झाझो प्रचार न थयो होय तो ते बनवाजोग छे. आ रचना जो दिगम्बर परंपरानी होय तो ते माटे ते परंपराना ग्रन्थो तथा प्रतिपादनो तपासवानां रहे. परंतु तत्त्वार्थसूत्र तो दिगम्बरपरंपरामान्य पण छे, अने आमां तेनाथी पण केटलीक बाबतो जुदी पडे छे. जे होय ते, पण आ रचना अपूर्व छे, तेनुं भाषा सौष्ठव तेमज प्ररूपण विलक्षण छे, तेमां शंका नथी. क्षणार्ध माटे एवो पण विचार झबकी जाय के हेमाचार्यना शिष्य आ. रामचन्द्रनी तो आ रचना नहि होय ? भाषा, विचारो अने प्रतिपादनोनी मौलिकता जोतां आवो प्रश्न सहज जागे, तो पण ते अनुत्तर ज रहे छे. आ रचना विशे कोइ जाणकार वधु प्रकाश पाडे तो ते आवकारदायक हशे ! Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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