Book Title: Agamoddharak Kruti Sandohasya Part 07
Author(s): Manikyasagarsuri
Publisher: Mithabhai Kalyanchandji Pedhi

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Page 44
________________ // 4 // साधयाम्येतदप्यलम् // 81 // निविण्णो जन्ममृत्युभ्यां, वाञ्छितं मे समृध्यति / सद्गुरूणां प्रसादेन, शेषानपि च बोधयेत् // 8 // सममेमिस्ततो धर्म, श्रयेत् कुर्याच्च सर्वदा / निराशंसः करणीय, योग्यं तन्मुनिशासनम् // 83 // | पतेष्वबुध्यमानेषु. कर्मणामपरिक्षयात् / आयोपायविशुद्ध तदु-पकार सुधीः सृजेत् // 84 // एषा कृतज्ञता धर्मजननी करुणा जने / कृत्वैवं तदनुज्ञातः, सम्यग्धर्म प्रसाधयेत् // 85 // अन्यथाऽनुपधो मायी, स्याद्यद्धर्मो हितः सदा। तत्थातथ्यैरसौ साध्यो- स्वीकृतौ सर्वथा त्यजेत् // 86 // अस्थानग्लानभैषज्यार्थत्यागज्ञाततो यथा। कश्चिन्ना विपिने माता-पितृयुक्तस्तदाश्रितः // 87 // गच्छेत्तयोराशुधाती, नृमात्रासाध्य उद्भवेत् / संभवद्भषजो रोगस्तत्र तत्प्रतिवन्धतः // 88 // एवमालोचयेत् कश्चिद् . नूनं भैषजमन्तरा। जीविष्यत इमौ प्राप्तेऽगदे संशय ईश्यते // 89 // एतौ कालसहौ ज्ञात्वा, संस्थाप्यागदहेतवे / वृत्त्यै स्वस्य त्यजन् साधुस्त्यागश्चात्याग एव च // 90 // अत्यागस्तु भवेत्त्यागः, प्रधानं विदुषां फलं। धीराः फलं विलोकन्ते, सम्भवादगदाश्रयात् // 91 // जीवयेत्तो सतामेतदुचितं तद्वदत्र च। मातापितृयुतः शुक्ल-पाक्षिकः पुरुषोत्तमः // 12 // भवकान्तारपतितो, विहरेद धर्मसङ्गतः / तयोविनाशकस्तत्राप्राप्तबीजाद्यसाध्यकः // 93 // सम्भवत्सम्यक्त्वादि-भैषजो मरणादिदः। कमरोगः समुद्भवेत् // 94 // धर्मस्य प्रतिबन्धेन, शुक्लपक्षः पुमांस्ततः। एवमालोचयेदेतो. सम्यक्त्वाद्यगदं विना // 15 // ध्रुवं विनंक्ष्यतः प्राप्तौ, विकल्पः तस्य विद्यते / एतौ कालसही ज्ञात्वा, संस्थाप्यहिकचिन्तया // 26 // सम्यक्त्वाद्यगदार्थ सगुर्वादयोगभावतः। कृत्यकरणेन स्वां वृत्ति, कर्तुं संयममाश्रयन् // 17 // त्यजन् सिद्ध्यं भवेत् साधुस्त्यागोऽत्यागश्च तत्त्वतः / मिथ्याभावनयाऽत्यागो, त्यागोऽत्र फलमुत्तमम् // 98 // तत्वनैतदृशो धीरा, जीवे दृष्टगदियोगतः। आत्यन्तिकं बीजमेत-दवन्ध्यं मरणोज्झितौ // 99 // सद्भावाद्योग्यमेतन्नुरप्रतिकारौ जनिः पिता। धर्म एष सतामत्र, शातं पित्रोस्त्यजन् शुचम् // 100 // वीरोऽकुशलसम्बद्धां, परोपतापवर्जितः। सर्वथा सुगुरोः पाऽभ्यर्च्य भगवजिनेश्वरान् // 10 // साधूंश्च यथा विभवं, सन्तोष्य कृपणादिकान् / प्रयुक्तावश्यकः शुद्धनिमित्तो ह्यधिवासतः // 102 // विशुध्यमानौ महता, प्रमोदेन परिव्रजेत् / उज्झित्वा लौकिकाः सञ्जा, मार्ग लोकोत्तरं श्रयेत् // 103 // एतद्रूपं हि दीक्षायाः कल्याणाक्षा जिनेशितुः। न विराध्या बुधेनेषाऽनर्थभीतेः शिवेप्सुना / 104 // विराद्धाऽऽक्षा भवायैव, स्यादाराद्धा शिवाप्तये। क्रियाफलेन युज्येत, मुविधिःक्षितः स // 105 // IMP.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust बा. के. सा. कोषा // 40 //

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