Book Title: Agamoddharak Kruti Sandohasya Part 07
Author(s): Manikyasagarsuri
Publisher: Mithabhai Kalyanchandji Pedhi

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Page 46
________________ सशिरसफलं दुःखा-नुबन्धी ताटा-वथेष्टा गर्हिता वि भगवद्वहुमानतः / तदा गुरु च बहु मन्यते / निय असारशुद्धभोजी सन् , कर्मव्याधिमुपद्रवन्। ध्यानं हीनं तनूकुर्वेश्वरणारोग्यमानयन् // 131 // वर्धमानोऽमधे / भावे, तल्लामे जातनिर्वृतिः। सरिक्रयाप्रतिबन्धेन, परीषहोपसर्गयोः // 132 // भावेऽपि तत्वसंवित्तः, कुशलाशय- TI.. वृद्धियुक / स्थिराशयस्वेन धर्मोपयोगात स्तिमितः सदा // 13 // वर्धते शुभळेश्यासु, गुरुं च बहु मन्यते / निसर्गभावतोऽसङ्ग-प्रवृत्तमहती क्रिया // 134 // भावसारा विशेषेण, भगवद्बहुमानतः। तदाशा.मन्यते यो मां, स गुरूं बहु मन्यते // 135 // अन्यथा पुंश्चलीचेष्टा-वचेष्टा गर्हिता विदां / विषानतृप्तिफलवन्न योगोऽस्य फलेन वै // 136 // संसारस्तत्फलं दुःखा-नुबन्धी तद्गुरुं श्रयेत् / अवन्ध्यकारणत्वेन, गुरुभक्तिर्महोदया // 137 // अतः परमसंवेगस्ततः सिद्धिरसंशया। शुभादेयः प्रकृष्टोऽसावेषा तदनुबन्धिनी // 138 // चिकित्सैवं-भवव्याधेर्न सुन्दरमित. परं। न विद्यतेऽत्रोपमान-मेवं प्रज्ञा च भावना // 139 // परिणामेन यस्त्वेवमपातिना विवर्धयन् / मासदिशभिः सर्वदेवळेश्या व्यतिव्रजेत् // 140 // एवं जिनेश्वराः प्राहुः, सर्वशुक्लयुतस्ततः / कर्मानुबन्धभित् प्रायो, लोकसझाविनाशकः // 141 // प्रतिश्रोतो गमः शश्वत्सुखयोगः स योगिराट् / श्रामण्यस्याराधकोऽसौ, प्रतिज्ञापूर्वृषोपमः // 142 / / एवं सर्वोपधाशुद्धः, सन्धत्ते शुभभावनां / निर्वाणसाधनी सम्यक्, सुरूपादिरतौ यथा // 143 // प्रादुष्पत्यविकलस्व-भा.. वाद क्लिष्टरूपतः / अननुतापिभाषाच, सौन्दर्यमनुबन्धतः // 144 // तत्तत्त्वखण्डनान्नान्या, प्रव्रज्या पूर्णतान्विता।पतज्ज्ञानमिति प्रोक्तं, शुभोऽस्मिन् योग आश्रितः // 145 // प्रतिपत्तिप्रधानोऽत्र (सत्ता अरूपिणी) योग्यो भावःप्रवर्तकः / प्रायो विघ्नं भवेन्नात्राशुभ यन्नानुबन्धयुक् // 146 // भावाराधनयाऽऽक्षिप्ता, योगाः सर्वे शिवावहाः। ततः प्रवर्तते सम्यग्निष्पादयत्यनाकुलः // 147 // एकान्तनिष्कलदैवं, क्रिया शुद्धार्थसाधनी। उत्तरोत्तरयोगाना, सिद्ध्या सदनुबन्धिनी // 148 // परार्थ साधयेत्सोऽतः, परं तत्कुशलस्सदा / सानुबन्ध प्रकारेस्तै/जवीजादिरोपणात् // 149 // क्रियावीर्यादियुक्तोऽसाववन्ध्यसुखचेष्टितः / समन्तभद्रः ,सद्ध्यान-हेतुर्मोहतमोरविः // 150 // रागरो-. गागदङ्कारो, द्वेषानलमहोदधिः। संवेगसिद्धिकृश्चिन्ता-मणिकल्पोऽयमिष्टकृत् // 151 // परार्थसाधकस्सैव, तथा कारुण्यभावतः / प्रभूतेषु भवेषु नाग घियुज्यन् पापकर्मतः // 152 // वर्धमानानेकशुद्ध-भावैराराधनाऽनघा। प्राप्यतेऽनेन चरमे, भवेऽचरमजन्मभूः // 153 / / पूर्णपरार्थनिमित्तं, तत्राधाय समां. क्रियां / रजो मलं च मि—य, क्षायिकं शानमाश्रितः // 15 // सिध्येद खुध्येत निर्वायात्सर्वक्लेशान्तकृद्भवेत् / एवं दीक्षा प्रपाल्यासौ, सिद्धो ब्रह्म 42 परं दधस् // 155 // क्षीणजन्मजरामृत्यु-दुःखश्च मङ्गलालयः / झीणानुबन्धशक्तिः स, सम्पूर्णात्मस्वरूपभाक् // 156 // . IN Jun Gun Aaradhak Irusel

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