Book Title: Agamoddharak Kruti Sandohasya Part 07
Author(s): Manikyasagarsuri
Publisher: Mithabhai Kalyanchandji Pedhi

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Page 45
________________ 20 // 41 // सात्त्विकः शुद्धचरणो, न विपर्ययमेति यत् / न चेद्विपर्ययः सिद्धिरभिप्रेतस्य निश्चिता // 106 // सदुपाये प्रवृत्तत्वान्नानुपायेऽविपर्ययः। उपेयसाधकोऽवश्य, स्यादुपायप्रवृत्तिमान् // 107 // तस्य संसारतः क्रोन्तिस्तात्त्विकीतरथा वृथा। निश्चयेन मतं ह्येतदन्यथाऽपीतराश्रयात् // 108 // स लेष्टुस्वर्णयोः शत्रु-मित्रयोः समभावभा। अनाग्रहः शमे रक्तः, सम्यक् शिक्षा गुरोः श्रयेत् // 109 // वासी गुरुकुळे सूरौ, प्रतिबद्धः सदर्थदृक् / विनीती मन्यते नातो, हितमन्यदिति स्थिरः // 10 // शुश्रूषादिगुणैर्युक्तस्तत्त्वेवभिनिवेशवान्। विधौ परः पठेत् सूत्रं, परो मंत्र इति स्मृतेः // 111 // बद्धलक्षो ह्यनाशंस, आयतार्थी लभेत तं / सम्यक् प्रवर्तते साधुर्धाराणां शासनं ह्यदः // 112 // अनियोगोऽन्यथाऽविधिना गृहीतो यथा। ध्रुवं च तदनारम्भान् , न किञ्चिच्चेद् विराधना // 113 // देशनायामत्र दुःखं, मार्गस्य त्ववधीरणा। स्याच्चास्याप्रतिपत्तिस्तन्नाधीतं ह्यर्थवर्जितम् // 114 // मार्गानुसारिणां नैषा, हेतुरर्थस्य विप्लवे। सूत्रारम्भाद् भुवं मार्गदेशनेऽभिनिवेशयुक् // 115 // सामान्येन क्रियारम्भः, प्रतिपत्तिस्तदा फलं / शेनावगमो बीज-युक्तोऽयं मार्गगामिनः // 116 // आपातेऽपायबहुलो, निरपायः श्रुतोक्तकृत् / समितः पञ्चभिर्गुप्तस्त्रिभिस्ता अष्टमातरः // 117 // प्रवचनस्य तत्त्यागोऽव्यक्तस्यानर्थवन्मतः। जनन्या वियुतो बालो, यथाऽनर्थपदं तथा // 118 // व्यक्तोऽत्र केवली साम्य-फलभूत इति सुधीः। परिशया द्विविधया, सम्यगेतद्विलोकयेत् // 119 // दीपं द्वीपं च स्यन्दन्त-मस्थिरं प्रोझ्य शक्तितः। यतेतास्यन्दनस्थेमार्थमभ्रान्तमनुत्सुकः // 120 // अतिचाररसंसक्तं, योगमाराधयेत्ततः / सिद्धरुत्तरयोगाना, मुच्यते पापकर्मभिः // 121 // आभवं शुध्यमानः सन्नारोहति शुभां क्रियां / शमसौख्यं लभेत द्रागपीडस्तु तपोयमैः॥१२॥ | व्याधिप्रतिक्रियान्यायान्न व्यथाऽस्य मनः श्रयेत् / परीषहोपसर्गाणा, भवरोगप्रमाथिनी // 123 // महाव्याधियुतः कश्चिद्वेदनातः स्वरूपवित् / निविण्णस्तत्वतस्तस्मात्सुवैद्यवचनेन तम् // 12 // अवगम्य विधानेन, प्रतिपद्यत तत्क्रियां / वृत्तिं यादृच्छिकी रुद्ध्वा, तुच्छं पथ्यं च खादति // 125 // स व्याधिना मुच्यमानो, निवQमानवेदनः। लब्ध्वारोग्यं वर्धमान तद्भावो लाभनिवृतः // 126 / / बोधाव्याधिशमारोग्ये, सिरावेधेऽपि निय॑थः। अनाकुलोऽभीष्टसिद्धः, क्रियायामुपयोगभाक् // 127 // यमे तपस्यगणयन् , पीडामुपसर्जनेऽव्यथः / वर्तत शुभळेश्यायां, वैद्य च बहुमन्यते // 128 // यथा तथा कर्मव्याधि-युतो जन्मादिवेदनः / शातदुःस्वस्वरूपत्वान् , निर्विण्णस्तत्त्वतस्ततः // 129 // गुरुक्तक्रियया कर्म-व्याधिं बुद्ध्वा विधानतः। प्रपन्नः सक्रियां दीक्षा, प्रमादाचाररोधकः // 13 // न्या // 41 // H Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust

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