Book Title: Agamoddharak Kruti Sandohasya Part 07
Author(s): Manikyasagarsuri
Publisher: Mithabhai Kalyanchandji Pedhi

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Page 48
________________ यचा 44 // शादिभिन्नता // 181 // भवाभावमया सिद्धि-न नोच्छेदे च जन्मिता // सामञ्जस्यं न त्वानादि-भत्ताहेतुः फलं / चन // 18 // स्वभावकल्पनाऽयुक्ता-निराधारोऽन्वयः कुतः / जीवस्यैव तथाभावे, सर्व युज्येत तत्खलु // 18 // सूक्ष्ममर्थपद विक्षरेतश्चिन्त्य मनीषया / अपर्यन्तं शिवे सौख्यं यत्ततोऽदः परं पदम् // 14 // सर्वथाऽनुत्सुकत्वेन, मा नाभावः सिद्धिमीयुषां / लोकान्तवासिनः सिद्धा, अनन्ता एकसंस्थितौ // 185 // अकर्मणां गतिः पूर्व-प्रयोगाविषुवत तथा। कर्मपविनाशेना-सङ्गादलाबुवत्पुनः // 186 // नासदस्पृशदत्या, गमनं लोकमूर्धनि / साऽप्युत्कविशेषेणो-च्छेदो भव्याङ्गिना नहि // 187 // ये सिद्धाः सेत्स्यन्ति तेऽमी, निगोदानन्तभागगाः॥ अलइण्या गोलका लोके, गोळेऽसंख्यावगाहनाः // 188 // एकावगाहनेऽसंख्या, निगोदा अंशमेदतः॥ एककस्मिन् निगोदेवासवोऽनन्ता जिनः स्मृताः // 189 // भव्यत्वं योग्यतारूप, योग्याः सर्वे ने कार्यगाः / मूर्तयोऽखिलदारुणांन कुम्भाः सर्वसन्मृदाम् // 190 // व्यवहारनयेनेदं, तत्त्वानोऽप्येष वर्तने / विशुद्धेस्तदनेकान्त-सिद्धिनिश्चयतोऽमलः // 193 // आझषा सर्वतो भद्रा, सर्वज्ञानां तु शासने / आद्यान्तमध्यकल्याणा, कपच्छेदातपर्युता // 192 // परिशुद्धिः पुनबन्धा-भावादिभ्योऽस्ति योग्यता / लिङ्कमेतप्रियत्वाख्यं, गम्यं योग्यप्रवृत्तितः // 193 // संवेगसाधकं नित्यं, नैषान्येभ्यो वितीर्यते / विस्खलिङ्गतो ज्ञेया-स्ततस्तदनुकम्पया // 194 // अदानमामकुम्भोद-झातेन हितकारकं, निन्दया दुर्लभो बोधि-स्वेिषामित्यनुप्राहुः // 195|| आक्षाविशुद्धतेकान्तात्, फलं, तदविरोधतः / महोदयफला शास्तु-बहुमानात् शिवप्रदा // 196 // प्रत्लेः पूर्वधरोजिनागमसुधासिन्धोः समुद्धत्य या, हुब्धा सङ्घहितावहा सुखकरी सत्पश्चसूत्री शुमा। व्याख्याता हरिभद्रसूरिचरणैः सद्धेतुवाक्यालया, सा परिचिताऽऽशु संस्कृत गिरा भव्यबजानवदा // 1 // मेवाते शुचिमण्डळेऽनघनुपे राज्य सदा शासति, सद्धर्मेण फतेहसिंहनृपतौ श्रीआदिनाथाचके / प्रामे सायरसदिक्षतेत्र मकभूनकट्यमाजि प्रभोः, प्रासादेन पवित्रिते द्विदशमाधीशस्य दृब्धा मुदा // 2 // वहिवस्वळूचन्द्राब्देष्वतीतेषु च विक्रमात् / सुखबोधाय संहब्धा, संस्कृते पञ्चसूत्रिका // 3 // पापं हत्वा गुणान् धृत्वा , श्रामण्यं परिभाव्य च 2 गृहीत्वा तत् 3 प्रपाल्यालं 4, मोक्षं तत्फलमाश्रयेत् 5 // 4 // इत्यस्यां पञ्चसध्या मो। अधिकासन निरीक्षतां / आत्मनाश्रयतां सम्यक् महानन्दं यतोऽवताम् / // 5 // इति आगमोद्धारकआचार्यप्रवर-श्रीआनन्दसागरसूरिपुङ्गवसंदृधा संस्कृतपञ्चसूत्री // PISOACSOKOOKONG Pau Co हा .के.

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