Book Title: Agamoddharak Kruti Sandohasya Part 07
Author(s): Manikyasagarsuri
Publisher: Mithabhai Kalyanchandji Pedhi

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Page 43
________________ सूत्री // 39 // बन्ध-कारणं ममतांहसां / समाचारेषु सर्वेषु, स्यात् स्मृत्या संयतो गृही // 57 // अमुकोऽहं कुलं मेऽदः, शिष्योऽमुष्याश्रितो वृष / अमुं विराधनामाऽस्यारम्भोऽस्यामाऽस्तु मे कदा // 58 // वर्धतामत्र सारोऽयं, धर्म आत्मोपमो मम / धर्मो हितोऽपरं तुच्छं. विशेषेणाविधिग्रहात् // 59 // एवमाह त्रिलोकीशः, करुणाकर आप्तराई। स्वयंसंबुद्धो भगवान् , अहस्त्रिलोकबान्धवः // 60 // एवमालोच्य धर्मेणाविरुद्ध वर्तते सुधीः / भावमङ्गलमेतद्यनिष्पत्तिः सुकतावळे // 6 // जागरेद्धर्मजागर्या, कः कालोऽस्य क्षमं किमु / असारा विषया एते, गन्तुका विरसान्तकाः // 62 // सर्वाभावकरो मृत्युीषणोऽज्ञातसङ्गमः / भूयोऽनुबन्ध्यवार्योऽयं, धर्म एतस्य भेषजम् // 63 // सिद्धश्चिरंजी: विताया, दानादार्यनिषेवितः। सर्वसत्वहितोयुक्तोऽनघः सिद्धिसुखावहः // 64 // नमोऽस्त्वस्मै सुधर्माय, तभृद्भयश्च नमो नमः / नमस्तत्ख्यापकेभ्यस्तत्स्वीकर्तृभ्यो नमो नमः // 65 // इच्छाम्यहममुं धर्म, प्रतिपत्तुं त्रिधा त्रिधा। ममैतदस्तु कल्याणं, जिनानामनुभावतः // 66 // प्रबं पुनः पुनायेत , प्रणिधानं शुभोदयम्। पतधर्मजुषां सेवा-कृत्स्यान् मोहभिदा ततः // 67 // एवं विशुद्धभावेन, कर्मापगमतो. व्रजेत् / योग्यता स्याञ्च संविग्नोऽममोऽन्यानुतापकः // 6 // विशुद्धः शुध्यमानान्तः-करणी मुनिधर्मधीः। यथोदितगुणे साधोधर्मेऽस्मिनू परिभाविते // 69 // यतेतैनं ग्रहीतुं द्राक, सम्यगन्यानुतापहृत् / विनं तत्प्रतिपत्तौ स, नोपायोऽस्यास्तु: बाधनम् // 7 // हितो नाकुशलारम्भो, नाग्नेः पङ्कजसम्भवः / मातापिता न बुद्धौ चेद. बोधयेत्तौ कथञ्चन // 79 // धर्मिणः सत्फलाः प्राणा, लोकद्वयहितोदुराः समुदायकृतं कर्म, समुदायफलं ध्रुवम् // 72 // शिवेऽस्माकं सदा योगोऽत्रैकवृक्षस्थपक्षिवत् / यमश्चण्डोऽनिश पावें, दुर्लभो मानुषो भवः // 73 // सागरे पतितं रत्नं, यथाप्तुं दुष्करं तथा / बहवोऽन्ये भवा अस्मात्, बहुदुःखफलाधमाः / / 74 // मोहान्धाः पापबन्धाच्या, अयोग्याः शुद्धसत्कृतौ। योग्यं नृत्वं पोतभूतं भवाब्धौ योजयेद् हिते // 75 // छिद्रं संवृणुते शान-कर्णधार तपःप्लवत् / सर्वकार्योपमातीतः क्षणोऽत्र दुर्लभो यतः // 76 सिद्धिसाधकसद्धर्मसाधको नरजन्मनः। उपादेयैषाऽसुमता, सिद्धिर्नास्यां यतो जनुः // 77 // न जरा न मृतिनेष्ट-वियोगो न क्षुधा तृषा। नान्योऽस्यां कोऽपि दोषोऽस्ति, जीवावस्थानमनिमम् // 7 // नाशुभा. अत्र रागावाः, स्थानं शान्त शिवं सुखं / संसारो विपरीतोऽतो, भावाः सर्वेऽत्र चञ्चलाः // 79 // सुख्यपि स्यान्महादुःखी, सदसत्स्वप्नवत् सम। तदलं प्रतिबन्धेन, कुरुत. मय्यनुग्रहम् // 80 // उद्यच्छत् समुच्छित्त्यै, भवस्य दुःखकपिणः। भवतोरनुमत्याऽहं, अवर Bee9C90 // 39 // MP.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust

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