Book Title: Agam Suttani Satikam Part 04 Samavayang
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Agam Shrut Prakashan
View full book text
________________
१५०
समवायाङ्गसूत्रम्-२३१ मू. (२३१) चत्तारि दुवालस अट्ठ चेव दस चेव चूलवत्थूणि।
आतिल्लाण चउण्हं सेसाणं चूलिया नत्थि ॥ मू. (२३२) सेत्तं पुव्वगयं से किं तं अनुओगे?, अनुओगे दुविहे पन्नत्ते, तंजहामूलपढमानुओगेय गंडियानुओगे य, से किंतमूलपढमानुओगे?, एत्थणं अरहंताणंभगवंताणं पुव्वभवा देवलोगगमणाणि आउंचवणाणि जम्मणाणि अअमिसेया रायवरसिरीओ सीयाओ पव्वजाओ तवा य भत्ता केवलनाणुप्पाया अतित्थपवत्तणाणि असंधयणं संठाणं उच्चत्तं आउं वनविभागो सीसा गणा गणहरा य अज्जा पवत्तीणीओ संघस्स चउब्विहस्स जं वावि परिमाणं जिणमणपज्जवओहिनाणसम्मत्तसुयनाणिणो य वाई अनुत्तरगई य जत्तिया सिद्धा पाओवगआ यजेजहिं जत्तियाइंभत्ताइंछेअइत्ताअंतगडामुणिवरुत्तमा तमरओघविप्पमुक्का सिद्धिपहमनुत्तरं चपत्ता। एएअनेयएवमाइया भावामूलपढमाणुओगेकहिआआघविजंतिपन्नविजंति परूविजंति सेत्तं मूलपढमानुओगे।
से किंतंगंडियाणुओगे?, अनेगविहे पन्नत्ते, तंजहा-कुलगरगंडियाओतित्थगरगंडियाओ चक्कहरगंडियाओ दसारगंडियाओ बलदेवगंडियाओवासुदेवगंडियाओ हरवंसगंडियाओ भद्दबाहुगंडियाओतवोकम्मगंडियाओचित्तंतरगंडियाओ उस्सप्पिणीगंडियाओओसप्पिणीगंडियाओ अमरनरतिरियनिरयगइगमणविविहपरियट्टणाणुओगे, एवमाइयाओ गंडियाओ आघविजंति पन्नविजंति परूविजंति, सेत्तं गंडियानुओगे।
- से किं तं चूलियाओ ?, जण्णं आइल्लाणं चउण्हं पुव्वाणं चुलियाओ, सेसाइं पुव्वाइं अचूलियाई, सेत्तं चूलियाओ।
दिट्ठिवायस्सणंपरित्ता वायणा संखेजाअनुओगदारा संखेजाओपडिवत्तीओ पडिवत्तीओ संखेजाओ निजुत्तीओ संखेज्जा सिलोगा संखेजाओ संगहणीओ, से णं अंगठ्ठयाए बारसमे अंगे एगे सुयखंधे चउद्दस पुव्वाइं संखेजा वत्यू संखेजा चूलवत्थू संज्जा पाहुडा संखेज्जा पाहुडपाहुडा संखेज्जाओ पाहुडियाओ संखेजाओ पाहुडपाहुडियाओ संखेज़ाणि पयसयसहस्साणि पयग्गेणं पनत्ता, संखेजा अक्खरा अनंता गमा अनंता पज्जवा परित्ता तसा अनंता थावरा सासया कडा निबद्धा निकाइया जिनपन्नत्ताभावा आघविजंति पन्नविनंति परूविजंतिदंसिर्जति निदंसिर्जति उवदंसिजंति, एवं नाया एवं विन्नाया एवं चरणकरणपरूवणया आघविजंति।
सेत्तं दिठिवाए, सेत्तंदुवालसंगे गणिपिडगे।
वृ. ‘से किं तं दिहिवाए'त्ति दृष्टयो-दर्शनानि वदनं वादो दृष्टीनां वादो दृष्टिवादः दृष्टीना वा पातो यत्रासौ दृष्टिपातः सर्वनयदृष्टय एवेहाख्यान्त इत्यर्थः, तथा चाह-'दिट्ठिवाए ण'मित्यादि, दृष्टिवादेन दृष्टिपातेन वा सर्वभावप्ररूपणाऽऽख्यायते, ‘से समासओ पंचविहे' इत्यादि सर्वमिदं प्रायो व्यवच्छिन्नं तथापि यथादृष्टं किमपि लिख्यते।
तत्र सूत्रादिग्रहणयोग्यतासम्पादनसमर्थानि परिकर्माणि गणितपरिकर्मवत्, तच्च परिकम॑श्रुतं सिद्धश्रेणिकादिपरिकर्ममूलभेदतः सप्तविधं, उत्तरभेदतस्तुत्र्यशीतिविधंमातृकापदादि, एतच्च सर्वसमूलोत्तरभेदं सूत्रार्थतो व्यवच्छिन्नं, एतेषांचपरिकर्मणांषट्आदिमानि परिकाणि स्वसामयिकान्येव, गोशालकप्रवर्तिताजीविकपाखण्डिकसिद्धान्तमतेन पुनःच्युताच्युतश्रेणिकापरिकमसहितानि सप्तप्रज्ञाप्यन्ते, इदानीं परिकर्मसु नयचिन्ता, तत्र नैगमो द्विविधः-साङ्ग्राहि
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org

Page Navigation
1 ... 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204