Book Title: Agam 37 Dashashrutskandha Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र ३७, छेदसूत्र-४, दशाश्रुतस्कन्ध'
उद्देशक/सूत्र दशा-६-उपासक प्रतिमा जो आत्मा श्रमणपन के पालन के लिए असमर्थ हो वैसी आत्मा श्रमणपन का लक्ष्य रखकर उसकी उपासक बनती है । उसे समणोपासक कहते हैं । यानि वो 'उपासक' के नाम से पहचाने जाते हैं।
ऐसे उपासक को आत्म साधना के लिए-११ प्रतिमा का यानि ११ विशिष्ट प्रतिज्ञा का आराधन बताया है, जिसका इस दशा में वर्णन किया गया है। सूत्र - ३५
हे आयुष्मान् ! वो निर्वाण प्राप्त भगवंत के स्वमुख से मैंने ऐसा सूना है। यह (जिन प्रवचन में) स्थविर भगवंत ने निश्चय से ग्यारह उपासक प्रतिमा बताई है । स्थविर भगवंत ने कौन-सी ग्यारह उपासक प्रतिमा बताई है? स्थविर भगवंत ने जो ११ उपासक प्रतिमा बताई है,
वो इस प्रकार है-(दर्शन, व्रत, सामायिक, पौषध, दिन में ब्रह्मचर्य, दिन-रात ब्रह्मचर्य, सचित्त-परित्याग, आरम्भ परित्याग, प्रेष्य परित्याग, उपधिभक्त-परित्याग, श्रमण-भूत) (प्रतिमा यानि विशिष्ट प्रतिज्ञा)
जो अक्रियावादी हैं और जीव आदि चीज के अस्तित्व का अपलाप करते हैं । वो नास्तिकवादी हैं, नास्तिक मतिवाला है, नास्तिक दृष्टि रखते हैं, जो सम्यक्वादी नहीं है, नित्यवादी नहीं है यानि क्षणिकवादी है, जो परलोक वादी नहीं है जो कहते हैं कि यह लोक नहीं है, परलोक नहीं है, माता नहीं, पिता नहीं, अरिहंत नहीं, चक्रवर्ती नहीं, बलदेव नहीं, वासुदेव नहीं, नर्क नहीं, नारकी नहीं, सुकृत और दुष्कृत कर्म की फलवृत्ति विशेष नहीं, सम्यक् प्रकार से आचरण किया गया कर्म शुभ फल नहीं देता, कुत्सित प्रकार से आचरण किया गया कर्म अशुभ फल नहीं देता, कल्याण कर्म और पाप कर्म फलरहित हैं । जीव परलोक में जाकर उत्पन्न नहीं होता, नरक आदि चार गति नहीं है, सिद्धि नहीं जो इस प्रकार कहता है, इस प्रकार की बुद्धिवाला है, इस प्रकार की दृष्टिवाला है, जो ऐसी उम्मीद और राग या कदाग्रह युक्त है वो मिथ्यादृष्टि जीव है।
ऐसा मिथ्यादृष्टि जीव महा ईच्छवाला, महारंभी, महापरिग्रही, अधार्मिक, अधर्मानुगामी, अधर्मसेवी, अधर्म ख्यातिवाला, अधर्मानुरागी, अधर्मद्रष्टा, अधर्मजीवी, अधर्म अनुरक्त, अधार्मिक शीलवाला, अधार्मिक आचरणवाला
और अधर्म से आजीविका करते हुए विचरता है । वो मिथ्यादृष्टि नास्तिक आजीविक के लिए दूसरों को कहता है, जीव को मार डालो, उसके अंग छेदन करो, सर, पेट आदि भेदन करो, काट दो । उसके अपने हाथ लहू से भरे रहते हैं, वो चंड, रौद्र और शूद्र होता है । सोचे बिना काम करता है, साहसिक होता है, लोगों से रिश्वत लेता है । धोखा, माया, छल, कूड़, कपट और मायाजाल बनाने में माहिर होता है । वो दुःशील, दुष्टजन का परिचित, दुश्चरित, दारूण स्वभावी, दुष्टव्रती, दुष्कृत करने में आनन्दित रहता है । शील रहित, गुण प्रत्याख्यान-पौषधउपवास न करनेवाला और असाधु होता है।
वो जावज्जीव के लिए सर्व प्रकार के प्राणातिपात से अप्रतिविरत रहता है यानि हिंसक रहता है। उसी प्रकार सर्व प्रकार से मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह का भी त्याग नहीं करता।
सर्व प्रकार से क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, कलह, आल, चुगली, निंदा, रति-अरति, माया-मृषा और मिथ्या दर्शन शल्य से जावज्जीव अविरत रहता है।
यानि इस १८ पापस्थानक का सेवन करता रहता है।
वो सर्व प्रकार से स्नान, मर्दन, विलेपन, शब्द, स्पर्श, रस, रूप, गन्ध, माला, अलंकार से यावज्जीव अप्रतिविरत रहता है, शकट, रथ, यान, युग, गिल्ली, थिल्ली, शिबिका, स्यन्दमानिका, शयन, आसन, यानवाहन, भोजन, गृह सम्बन्धी वस्त्र-पात्र आदि से यावज्जीव अप्रतिविरत रहता है। सर्व, अश्व, हाथी, गाय, भैंस, भेड़-बकरे, दास-दासी, नौकर-पुरुष, सोना, धन, धान्य, मणि-मोती, शंख, मूगा से यावज्जीवन अप्रतिविरत रहता है।
यावज्जीव के लिए हिनाधिक तोलमाप, सर्व आरम्भ, समारम्भ, सर्व कार्य करना-करवाना, पचन-पाचन,
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(दशाश्रुतस्कन्ध)” आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद”
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