Book Title: Agam 37 Dashashrutskandha Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

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Page 15
________________ आगम सूत्र ३७, छेदसूत्र- ४, 'दशाश्रुतस्कन्ध' उद्देशक / सूत्र कूटना, पीसना, तर्जन-ताड़न, वध-बन्ध, परिक्लेश यावत् वैसे प्रकार के सावद्य और मिथ्यात्ववर्धक, दूसरे जीव के प्राणों को परिताप पहुँचानेवाला कर्म करते हैं । यह सभी पाप कार्य से अप्रतिविरत यानि जुड़ा रहता है । जिस प्रकार कोई पुरुष कलम, मसुर, तल, मुग, उड़द, बालोल, कलथी, तुवर, काले चने, ज्वार और उस प्रकार के अन्य धान्य को जीव रक्षा के भाव के सिवा क्रूरतापूर्वक उपपुरुषन करते हुए मिथ्यादंड़ प्रयोग करता है, उसी प्रकार कोई पुरुष विशेष तीतर, वटेर, लावा, कबूतर, कपिंजल, मृग, भैंस, सुकर, मगरमच्छ, गोधा, कछुआ और सर्प आदि निर्दोष जीव को क्रूरता से मिथ्या दंड़ का प्रयोग करते हैं, यानि कि निर्दोषता से घात करते हैं । और फिर उसकी जो बाह्य पर्षदा है, जैसे कि - दास, दूत, वेतन से काम करनेवाले, हिस्सेदार, कर्मकर, भोग पुरुष आदि से हुए छोटे अपराध का भी खुद ही बड़ा दंड़ देते हैं। इसे दंड़ दो, इसे मुंड़न कर दो, इसकी तर्जना करो -ताड़न करो, इसे हाथ में पाँव में, गले में सभी जगह बेड़ियाँ लगाओ, उसके दोनों पाँव में बेड़ी बाँधकर, पाँव की आँटी लगा दो, इसके हाथ काट दो, पाँव काट दो, कान काट दो, नाखून छेद दो, होठ छेद दो, सर उड़ा दो, मुँह तोड़ दो, पुरुष चिह्न काट दो, हृदय चीर दो, उसी प्रकार आँख-दाँत-मुँह-जीह्वा उखेड़ दो, इसे रस्सी से बाँधकर पेड़ पर लटका दो, बाँधकर जमीं पर घिसो, दहीं की प्रकार मंथन करो, शूली पर चड़ाओ, त्रिशूल से भेदन करो, शस्त्र से छिन्न-भिन्न कर दो, भेदन किए शरीर पर क्षार डालो, उसके झख्म पर घास डालो, उसे शेर, वृषभ, साँड़ की पूँछ से बाँध दो, दावाग्नि में जला दो, टुकड़े कर के कौए को माँस खिला दो, खाना-पीना बन्द कर दो, जावज्जीव के बँधन में रखो, अन्य किसी प्रकार से कुमौत से मार डालो । उस मिथ्यादृष्टि की जो अभ्यंतर पर्षदा है । जैसे कि माता, पिता, भाई, बहन, भार्या, पुत्री, पुत्रवधू आदि उनमें से किसी का भी थोड़ा अपराध हो तो खुद ही भारी दंड़ देते हैं । जैसे कि ठंड़े पानी में डूबोए, गर्म पानी शरीर पर ड़ाले, आग से उनके शरीर जलाए, जोत- बेंत नेत्र आदि की रस्सी से, चाबूक से, छिवाड़ी से, मोटी वेल से, मारमारकर दोनों बगल के चमड़े उखेड़ दे, दंड़, हड्डी, मूंड़ी, पत्थर, खप्पर से उनके शरीर को कूटे, पीसे, इस प्रकार के पुरुष वर्ग के साथ रहनेवाले मानव दुःखी रहते हैं। दूर रहे तो प्रसन्न रहते हैं । इस प्रकार का पुरुष वर्ग हंमेशा डंडा साथ रखते हैं । और किसी से थोड़ा भी अपराध हो तो अधिकाधिक दंड़ देने का सोचते हैं । दंड़ को आगे रखकर बात करते हैं । ऐसा पुरुष यह लोक और परलोक दोनों में अपना अहित करता है । ऐसे लोग दूसरों को दुःखी करते हैं, शोक संतप्त करते हैं, तड़पाते हैं, सताते हैं, दर्द देते हैं, पीटते हैं, परिताप पहुँचाते हैं, उस प्रकार से वध, बन्ध, क्लेश आदि पहुँचाने में जुड़े रहते हैं । इस प्रकार से वो स्त्री सम्बन्धी काम भोग में मूर्च्छित, गृद्ध, आसक्त और पंचेन्द्रिय के विषय में डूबे रहते हैं । उस प्रकार से वो चार, पाँच, छ यावत् दश साल या उससे कम-ज्यादा काल कामभोग भुगतकर वैरभाव के सभी स्थान करके कईं अशुभ कर्म ईकट्ठे करके, जिस प्रकार लोहा या पत्थर का गोला पानी में फेंकने से जल-तल का अतिक्रमण करके नीचे तलवे में पहुँच जाए उस प्रकार से इस प्रकार का पुरुष वर्ग वज्र जैसे कईं पाप, क्लेश, कीचड़, बैर, दंभ, माया, प्रपंच, आशातना, अयश, अप्रतीतिवाला होकर प्रायः त्रसप्राणी का घात करते हुए भूमितल का अतिक्रमण करके नीचे नरकभूमि में स्थान पाते हैं । T वो नरक भीतर से गोल और बाहर से चोरस है । नीचे छरा अस्तरा के आकारवाली है । नित्य घोर अंधकार से व्याप्त है । चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र, ज्योतिष्क की प्रभा से रहित हैं । उस नरक की भूमि चरबी, माँस, लहू, परू का समूह जैसे कीचड़ से लेपी हुई है । मल-मूत्र आदि अशुचि पदार्थ से भरी और परम गंधमय है । काली या कपोत वर्णवाली, अग्नि के वर्ण की आभावाली है, कर्कश स्पर्शवाली होने से असह्य है, अशुभ होने से वहाँ अशुभ दर्द होता है, वहाँ निद्रा नहीं ले सकते, उस नारकी के जीव उस नरक में अशुभ दर्द का प्रति वक्त अहसास करते हुए विचरते हैं । जिस प्रकार पर्वत के अग्र हिस्से पर पैदा हुआ पेड़ जड़ काटने से ऊपर का हिस्सा भारी होने से जहाँ नीचा स्थान है, जहाँ दुर्गम प्रवेश करता है या विषम जगह है वहाँ गिरता है, उसी प्रकार उपर कहने के मुनि दीपरत्नसागर कृत् " ( दशाश्रुतस्कन्ध)” आगम सूत्र - हिन्दी अनुवाद " Page 15

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